उसी दुःख भरे मौसम एक फूल है प्रियतम!
ख़ुशबू जिसकी साल तमाम महकती हवाओं में।
जी भरकर पीने से पहले होंठ पर ही मिट जाती है
आवेग की चिरहरित प्यास भला क्या
किया जा सकता था? बहुत पहले ही
जल चुका था प्यार का घना जंगल।
एक बार फिर वसंत जो आया यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ
लहराने लगी महकती हवाएँ। उसी दुःख भरे
मौसम का ही एक फूल है प्रियतम! ख़ुद नहीं पहचान पाती
अपनी ख़ुशबू! मगर देखो कैसे खिल उठता है पूरे शरीर में
यंत्रणा-सा नील चंपा-पुष्प। खिल उठता है अब निर्जनता की
नदी के कगार पर। नीले आकाश पर सिंदूरी सूरज उगता है
आहत आशाएँ लिए अपेक्षा की है
नहीं आएगा दूसरा कोई दिन
प्यार के गाँव में जब नाच रही होगी तुम्हारी
प्रिय ऋतु प्रियतम! गुलाबी फागुन
फिर भी करुण भाव से एकाकी फूल
ओह! पी नहीं पाता है अपनी ख़ुशबू
ऐन होंठ पर ही मर जाती है प्यास।
नारी मात्र ही आवेगों का समाहार
थोड़े आँसू
थोड़ा एकाकीपन!
वही नारी। वही विषाद प्रतिमा
उदास आँखों में जिसकी नीली करुणा
हर बार निस्संगता अपने पर गिराकर
चली जाती है। पसार देती है अपने पैरों से
विचित्र अंधकार
न तो ख़ामोशी के इस सुनसान घर से क़दम बढ़ाया जाता है
न ही रहा जाता है चुपचाप। तूफ़ानी शून्यता
जकड़ लेती है पूरे परिवेश को!
न इस जनम में न अगले जनम में
अब और आगे कुछ नहीं, सब कुछ आज का यह कठोर क्षण
कैसे प्यार करते हैं सागर और किनारा
कैसे होती है दौनी खलिहान में
एक जगह एकाकार। एक हो जाने का सुरभित प्रयास
प्यार से चेहरे को मुग्ध हथेलियों में थामते
चेहरे को चेहरे के क़रीब लाते वक़्त
जितना क़रीब आ जाने पर भी
निस्संगता खरोंचती रहती है सारमय सत्ता
जर्जरित हृदय की
लाल होंठों पर पलाश की यंत्रणा
काली आँखों में शून्यता के जापानी खिलौने
डोलते रहते हैं अपने-अपने
अकेलेपन में
धुँधले बियाबान में
कौन है कहाँ पर? जो ले जाएगा इस नारी को सस्नेह
निर्जनता नदी के किनारे से अपने कोलाहलमय सीने की कोठरी में
बंद कर देगा ममता के कपाट
जिसके अंदर स्वप्निल वर्षा का सीत्कार
भिगो देगा नारी को अपने स्नेह से
गुमनाम बना देगा मुझे प्रेम के अजर अमर गाँव में
हाथ पकड़कर ले जाएगा पगडंडियों पर
धान के खेत की मेंड़ पर।
पिलाएगा मधुपूरित हवा
स्नेहसिक्त अंजुली में भरकर
और कहेगा—‘‘विश्वास करो
तुम हो सिर्फ़ तुम्हारी तरह।”
वंशी पर राग आसावरी का आतुर आह्वान
पोंछ लेगा जो यह अकेलापन धीरे-धीरे
हवा सुखाती रही है जिस स्नेहसिक्त घर को। बड़े जतन से आज तक।
विदा कहने का कष्ट सिर्फ़ कहने वाला ही जाने
सीने में धड़कता है विदा का शोकगीत
आज-सा दिन भी नहीं रहा। सोचकर जी चाहता है लिखने को
करुण कविता।
किसकी सम्मति के बाद लिखी जाती है गोपनीय
बातें तमाम एकांत अंतरंग हृदय की
जी करता है आज रात लिख जाने को एकाकी नारी के लिए
करुण कविता, आकाश में जर्जरित मोहग्रस्त यंत्रणा
लौटा देती है बियाबान-स्मृति के घर में।
वह अपर्णा सेन की 'छत्तीस, चौरंगी लेन' का
वॉयलेट स्टोनहोम हो या प्रितीश नंदी का अकेला आदमी
हर एक के सीने में है दर्द एक जैसा
प्रेम की तरह विश्वव्यापी एकाकीपन का अनुभव
जो चाहता है उसे न पाने पर ही तो
भीतर इतना अधिक अकेलेपन का राज़
ख़ुद जलकर राख़ हो जाने से ठीक पहले ही
शायद उम्मीद होती है और ज़्यादा प्रज्वलित!
- पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 52)
- संपादक : गिरधर राठी
- रचनाकार : कवयित्री के साथ दीप्ति प्रकाश एवं प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1994
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