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एक था अबूतर, एक था कबूतर

ek tha abutar, ek tha kabutar

उदय प्रकाश

उदय प्रकाश

एक था अबूतर, एक था कबूतर

उदय प्रकाश

और अधिकउदय प्रकाश

    अबूतर और कबूतर

    दोनों सिक्के के दो पहलू

    भेड़िए की मूँछ के दो बाल

    अपने मालिक के पक्के दलाल।

    अबूतर ज़रा लंबा, कुछ गोरा, थोड़ा शांत और चुप

    कबूतर ज़रा ठिगना, कुछ साँवला, थोड़ा बातूनी और बिगड़ैल।

    दोनों जुड़वाँ नहीं थे।

    अलग-अलग ग़रीब कोख में जनमे

    ग़रीबी में पले और बढ़,

    अलग-अलग दो जगहों से आए,

    फिर अपनों से दग़ा किया।

    भेड़िया किसी पर बिगड़ता

    तो दोनों भौंकते

    एक सुर, एक ताल, एक लय, एक संगीत में।

    मशहूर थी सत्ता-राग में दोनों की

    जुगलबंदी।

    अबूतर ने ख़ास पढ़ा नहीं था

    लेकिन पढ़े हुओं को काटता था।

    कबूतर ने ख़ास लिखा नहीं था

    लेकिन लिखे हुओं को डाँटता था।

    अबूतर-कबूतर के पीछे भेड़िया पलटन थी

    लोमड़ जमात थी, सत्ता थी,

    पूरी कटखनी सल्तनत थी

    जब फटी क़मीज़, बिखरे बाल, ख़ाली पेट

    और बेचैन दिमाग़ का दिखता कोई आदमी

    तो अबूतर चिल्लाता—'मनहूस'

    कबूतर कहता—

    ‘दुश्मन का जासूस’

    मालिक ख़ुश होता, दोनों खिलखिलाते

    वह गाता, दोनों सुर मिलाते

    वह उदास दिखता, दोनों अपना कलेजा पकड़कर रोते

    मालिक बिगड़ता

    दोनो भौंकते

    हुलकारता, वे काटने के लिए दौड़ते

    वह छींकता, ये पादते

    वह खाता, ये डकारते

    लेकिन अबूतर के बच्चे

    दुश्मनों के बच्चों के साथ

    भेड़िए को मारने का खेल खेलते

    कबूतर की बीवी

    दुश्मन औरतों के साथ

    भेड़िए के अत्याचारों के क़िस्से कहती-सुनती

    अबूतर और कबूतर

    दोनों भेड़िए की मूँछ के दो बाल थे सिर्फ़

    लेकिन का दोनों ख़ुद को

    भेड़िए का जबड़ा, उसकी आँत और समूचा का समूचा

    भेड़िया समझते

    कुछ दिनों बाद

    अबूतर-कबूतर के घिस गए दाँत

    बैठ गया गला

    झरने लगे नाख़ून

    कुछ दिनों बाद

    भेड़िए की मूँछ के दोनों बाल

    पकने लगे

    तो भेड़िए ने उन्हें चुटकी में दबाकर उखाड़ा

    फूँक मारी

    और हाथ को झाड़ा

    अबूतर की टूट गई रीढ़

    कबूतर का बंद हुआ गला

    दोनों डाल चूके बंदर

    दोनों का खेल ख़त्म हुआ

    दोनों को भीड़ ने

    गेंद की तरह उछाला

    कपड़े की तरह पछींटा

    मिट्टी की तरह रौंदा

    और लत्ते की तरह

    फेंक दिया

    शहर की सबसे बड़ी दीवार पर

    लिखा है आज भी—

    ‘इस नगर में

    एक था अबूतर

    एक था कबूतर

    दोनों थे भेड़िए की मूँछ के सिर्फ़ दो रोएँ

    लेकिन ख़ुद को समूचा भेड़िया समझते थे’

    अबूतर-कबूतर

    दोनों का

    हुआ यों अंत

    हा हंत!

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 72)
    • रचनाकार : उदय प्रकाश
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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