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एक क़स्बे के नए नोट्स

ek qasbe ke nae nots

शिरीष कुमार मौर्य

शिरीष कुमार मौर्य

एक क़स्बे के नए नोट्स

शिरीष कुमार मौर्य

और अधिकशिरीष कुमार मौर्य

    क़स्बे के आसमान में बेमतलब-सा पूरा चाँद है

    तारों की टिमक को कुछ हल्का करता हुआ

    पेड़ हवा के अलावा

    जड़ों के नीचे-से रोज़ थोड़ी-थोड़ी मिट्टी दरक जाने के कारण भी हिलते हैं

    ज़्यादातर चीड़ हैं वे वैसे भी कुछ कच्चे् होते हैं

    अपनी ही धरती का सारा पानी सोख लेना उनकी फ़ितरत है

    और आँधी-पानी में असमय गिर पड़ना उनकी नियति

    रात आठ बजे इस पहाड़ी क़स्बे में रात के सन्नाटे ने दस्तक दी है

    कुछेक लड़खड़ाते गुज़रते शराबियों के अलावा कोई नहीं है

    उनमें झगड़ा हो जाने पर दूर से आती कुछ माँ-बहन हैं...

    घर के नीचे मैदान में

    एक किशोर को तीन किशोर मिलकर मारते हैं

    सिर फोड़ देते हैं

    मेरे पहुँचने तक देर हो जाती है

    उसे अस्पताल में अठारह टाँके आते हैं

    पता चलता है प्रसंग प्रेम का है

    मैं इस शब्द प्रेम को ख़ूब समझा हुआ समझता था

    अब इस सबके बीच कुछ भी समझता हुआ खड़ा रहता हूँ

    कोई शर्मिंदा नहीं है

    जबकि अस्पताल पहुँचे सम्मानित थानाध्यक्ष इन मामलों में ग़लतियाँ और गालियाँ निकालने

    और नैतिक शिक्षा देने में विशेषज्ञ हैं

    उधर इस सबसे बेख़बर

    सड़क किनारे एक पागल

    जो दिन भर धूप सेंकता और गुज़रती पर्यटक कारों से फेंका हुआ

    भोज्याभोज्य खाता है

    रात में हस्तमैथुन करता हुआ सिसकारियाँ भरने लगता है

    वह हाथ पर लगे वीर्य को सूँघता है देर तक

    और उसकी निरर्थकता पर उदास होता है

    जबकि

    एक सफल सुखद स्खलन के बाद उसे ख़ुश होना चाहिए

    लोग कहते हैं यहाँ भी बीते हुए प्रेम का ही कोई पेच है

    और शुक्र भी मनाते हैं

    कि यह कार्रवाई वह दिन में नहीं करता

    वरना उनकी स्त्रियों को लज्जित होना पड़ता

    मैं उन लोगों को ठीक से नहीं जानता

    ही उनकी स्त्रियों की लज्जा को

    एक लड़खड़ाते गिरते आदमी को देख

    मैं पूछने लगता हूँ यहाँ इतने शराबी क्यों हैं...

    साथ चलते क़स्बे में नए आए एक समझदार बुज़ुर्ग बताते हैं

    यहाँ बेरोज़गारी, प्रेम के क़िस्से और पागल ज़्यादा हैं

    इस तरह बेरोज़गारी और प्रेम में असफलताएँ सरकार के आबकारी राजस्व को बढ़ाने में

    सहायक होती हैं

    युवाओं का लगातार बेरोज़गार होना, प्रेम में पड़ना, शराब पीते रहना और फिर पागल हो जाना

    यह एक सीधा समीकरण है इस क़स्बे के जीवन का

    शायद सभी क़स्बों के जीवन का जिसे कठिन भाषा में कहना अपराध होगा

    और सरलता इसकी गंभीरता को प्रकट नहीं कर सकती कभी

    चाँद बेमतलब चमकता रहता है

    चीड़ हिलते रहते हैं

    और मैं पाता हूँ

    कि मेरा कवि अंतत: मनुष्यता के दुर्दिनों का कवि है

    जो अपनी पीड़ा, प्रेम और क्रोध के सहारे जीता है

    शराब पीनी छोड़ दी है जिसने कभी की

    अब बस अपने भीतर का अब्र-ओ-आब पीता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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