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एक इंद्रधनुष-सा चमक जाता है

ek indradhnush sa chamak jata hai

कुमार कृष्ण शर्मा

कुमार कृष्ण शर्मा

एक इंद्रधनुष-सा चमक जाता है

कुमार कृष्ण शर्मा

और अधिककुमार कृष्ण शर्मा

    मैंने

    उतार लाया है

    रोता हुआ

    शायद... हँसता हुआ

    नहीं-नहीं

    रोने के बाद

    हँसता हुआ

    सफ़ेद बादलों का एक फाहा

    और उसे रख दिया है अपने ज़ख़्मों पर

    जब ज़ख़्मों से रिसता हुआ लहू

    उस फाहे में समा

    मेरी क़लम की स्याही बनता है

    तभी तो मैं लिख पाता हूँ

    दर्द भरी

    शायद... प्रेम भरी

    नहीं-नहीं

    दर्द के बाद

    प्रेम भरी कविता

    देखो मेरी कविता में मैं हूँ

    शायद... मेरी कविता में तुम हो

    नहीं-नहीं

    मेरी कविता में मैं नहीं

    सिर्फ़ तुम हो

    मेरी कविता के हर्फ़ चमकते हैं

    यह चमक सफ़ेद बादलों के फाहे ही हैं

    शायद... यह चमक स्याही बने मेरे ख़ून की है

    नहीं-नहीं

    यह चमक तुम्हारी कविता हो

    मेरे पन्ने पर उतर जाने की है।

    मेरी कविता बदसूरत है

    अशोक वाटिका में

    सीता की सेवा में लगी त्रिजटा की तरह

    शायद... मेरी कविता सुंदर है

    मेनका के सौंदर्य की तरह

    नहीं-नहीं

    मेरी कविता बदसूरती के बाद सुंदर है

    कृष्ण को दूध पिलाती पूतना की तरह

    मेरी कविता शापित है

    अर्जुन के बृहन्नला बनने की तरह

    शायद... मेरी कविता वरदानित है

    रक्तबीज की तरह

    नहीं-नहीं

    मेरी कविता शापित हो वरदानित है

    गौतम की आहिल्या की तरह

    मेरी कविता इकरंगी है

    शायद... मेरी कविता बहुरंगी है

    नहीं-नहीं

    मेरी कविता इकरंगी के बाद बहुरंगी है

    जब मेरी कविता बहुरंगी बनती है

    तो उस रिक्त स्थान पर

    जिधर से मैं

    बादलों का फाहा उतार लाया था

    एक इंद्रधनुष-सा चमक जाता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुमार कृष्ण शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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