निदा फ़ाज़ली मुझे क्यों प्रिय हैं,
मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं है।
ठीक इस तरह जैसे मैं हिंदू क्यों हूँ?
ठीक जैसे मैं हिंदू औरत क्यों हूँ?
ठीक जैसे मैं कई सालों से शादीशुदा हिंदू औरत क्यों हूँ?
निदा फ़ाज़ली बरसों पहले कुछ नया नहीं लिख गए
वे उन्हीं मनोभावों की लकीर पर अपनी कलम घिसते रहे,
जिनको भटकाव का रास्ता समझ कइयों ने उलाँघ जाना पसंद किया
यह लोकतांत्रिक देश है
यहाँ एक चेहरे की वकालत चलती है
गो यहाँ सर्वोच्च न्यायालय तक की नहीं चलती
यहाँ सड़कों पर घूमती छुट्टा गाय की चलती है
गाय का एक चेहरा है,
यह मैंने नहीं लिखा था गाय के निबंध में
अलबत्ता लिखा था उसके जिस्म,
उसकी चमड़ी, उसकी ख़ूबी
और उससे पैदा बछड़ों के बारे में
‘बछियों पर क्यों नहीं लिखा था!’
“क्योंकि मुझे मेरी माँ ने नहीं लिखवाया था बछिया पर लिखना”
निदा फ़ाज़ली भी आदमी के भीतर अनेक आदमियों की शिनाख़्त करते हैं
डरते हैं शायद औरत के भीतर के आदमी से।
यह प्रजातंत्र है
यहाँ हर आदमी के पास उसका एक चेहरा है
हर दल के पास एक चेहरा है
चेहरे के पास उसका एक चेहरा नहीं है
क्या यह कोई नहीं बताएगा!
मैं तपाक से जवाब दे दूँगी
अगर भरी महफ़िल में मुझसे पूछा जाएगा
मेरी पसंद का शे’र
मेरी पसंद का शाइर
निदा फ़ाज़ली मुझे क्यों प्रिय हैं, इस सवाल पर
घर लौटकर मैं यह कविता फिर से दोहराऊँगी।
- रचनाकार : प्रिया वर्मा
- प्रकाशन : समकालीन जनमत
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