शिला बंधुर दुर्गम पथ में जो सरित-स्रोत
हे बंधु, बहता है
वह क्या कभी गाता है मंद-मधुर-कल-संगीत-स्वर में?
वह क्या कभी कहता है धीर-मंथर भाषा में
वह तो छूटता है अपने गुरु-गंभीर स्वर से
वह तो देखता है अपने घूर्णि आवर्त्तन को
वह तो विहँसता है फेन उच्छ्वास से विद्रूपभरे हास्य से
हे बंधु, आज ठीक उसी तरह
मैं प्रतिहत एक प्राण प्रवहमान हूँ
कुचलकर पाँवों से
कितनी बाधाएँ, कितनी यंत्रणाएँ, कितनी लांछनाएँ एवं अपमान
चल रहा हूँ अविराम।
मेरे पथ पर है निशा की गहन तमसा राशि
चंद्रालोक पर घिरे हुए अंबुद
चित्त के प्रवाह पर
विष की कालिमा भरते हैं, अवारित भरते हैं।
यह दीन दुनिया अपने शोणित बाण से
मेरी छाती के नीचे अयुत आघात करती है
छाती का रक्त देकर
मर्म का स्मित देकर
मैं चल रहा हूँ छाया-आलोक के चित्रित अभियान में
विघ्न बाधा के मेरे बधुर पथ में
मैं हूँ एकचक्र
दुर्वार मनोरथ से।
राही दलों को बुलाकर गौरव से
नित्य प्रति मैं उड़ा देता हूँ जो कुछ है मेरे पास
किंतु धरती के शत-शत उत्सवो में
मेरे लिए एक भी आह्वान नही आता।
हृदय देकर भी हृदय नही पाता रंच-मात्र
आँसू बहाने से आँसू तो नहीं मिलते
यदि कुछ मिलता है तो केवल छलना
दुःसह अवहेलना।
कहीं यदि हृदय मिलता है
जीवन-कुसुम खिल उठता है
पाप-पाप कहकर लोगों के मुँह से
सैकड़ों अपवाद उठते हैं
श्रम देने पर भी जगत् उसका मूल्य नहीं देता
फूलों के बगीचे लगाने पर भी
दूसरे तोड़ लेते हैं फूल।
हे बंधु, कहो चित्त में क्या मधु है?
मधु मिश्रण कर कहूँगा मन की बात
मैं आज अपना चित्त प्रकाश फैलाऊँगा
शील संभ्रम शिष्टता मानकर।
बातों में मेरी आहत मन की साँस
भाषा में मेरी शोणित की अरुणता
सुर में मेरे बंकिम उपहास
मैं कह रहा हूँ आज अप्रिय सत्य की कहानी
चारुवाक् होऊँगा बोलो मैं किस छलना से आज
दुर्मुख हूँ मैं इस रूक्ष धरातल पर।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 95)
- रचनाकार : राधामोहन गड़नायक
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी
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