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दुख बहस के बीच

dukh bahs ke beech

कौशल किशोर

कौशल किशोर

दुख बहस के बीच

कौशल किशोर

वहाँ दुख-ही-दुख है

बाढ़ का पानी

जैसे गाँव, बस्ती और घर में फैल जाता है

दुख भी पसर गया है उसी तरह

जब कोई एक-दूसरे से मिलता है

उनका दुख मिलता है

दुख ही आपस में बतियाता है

वह दर्द बन छलकता है

उनके आँसुओं से

मनुष्यता की चादर भींग गई है

वे आसमान के नीचे थीं

समुद्र पार से आती घहराती घटाएँ थीं

आँधी, तूफ़ान, बिजली, बारिश, ओला सब सहती थीं

सिर पर छप्पर था, वह भी चूता था

ज़िंदगी कठिन थी, पर वह थी

सुख नहीं था, पर उसकी आस थी

अब वे जहाँ थीं, वह अँधी सुरंग थी

इस अँधेरे में

एक-दूसरे को पहचानना मुश्किल था

इससे बाहर आना और भी मुश्किल

बस दुख था, जो सबका सखा था

अँगुलियाँ थीं, जो मुट्ठी में बँधी थीं

उनके दुख की बात दुनिया में हो रही थी

बैठकें ज़ारी थीं, हित साधे जा रहे थे

कुछ ‘वेट एंड वॉच’ की मुद्रा में थे

मतलब दुख बहस के बीच था

उस पर लिखी जा रही थीं कविताएँ

जब दुख-से-दुख मिलता है

वह महज़ दुख नहीं रहता, पत्थर हो जाता है

उसमें गति होती है

होता है आवेग और त्वरण

वह दुख के गर्भ में पलता है

गर्भस्थ शिशु की तरह बढ़ता जाता है

पत्थर की रगड़ से प्रस्फुटित होती है चिनगारी

जंगल की व्यवस्था हो या हो व्यवस्था का जंगल

यही चिनगारी दावानल बन सकती है।

स्रोत :
  • रचनाकार : कौशल किशोर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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