मेरे जीवन की यह गाथा
पूरी जब हो जाएगी
मैं इसको पढ़ न पाऊँगा
मैं इसको सुन न पाऊँगा
रूप इसका क्या बतलाऊँ
रंग है इसका क्या दिखलाऊँ
मैं तो बस इतना जानूँ
लिखता ही बस लिखता जाऊँ
आगे-आगे बढ़ता जाऊँ।
पंक्ति हूँ मैं लिख पाता
कुछ अनजानी सोचों की अनजान लकीरें
कहीं यदि कोई सोची-समझी
पड़ गए मानो चित्र-से
पाँव टिका है काँटों पर
तेज़ कँटीले शूलों पर
मैं रंग इन्हीं में भरता जाऊँ।
आशा और निराशा के
हँसी और ठहाकों के
रोष कहीं है कहीं मसोस
कहीं हैं कलियाँ रीझों की
तो फूल कहीं पछतावे के।
मैं लिख पाया जो भी पंक्ति
लिखी गई, बस लिखी गई है।
लिखी गई तो फिर न मिटती
मैं यह गाथा रचने हेतु
या फिर इसे सजाने हेतु
इसकी पंक्ति-पंक्ति तांई
या फिर इसके शब्दों ख़ातिर
घूम रहा हूँ झोली फैलाए
मँगता हो पगलाया जैसे।
माँगूँ चाँद-सितारों से मैं
माँगूँ मैं बीरानों से भी
माँग रहा हूँ निर्जन बस्ती
मस्ती मस्त बहारों से
दिखे कहीं तो मुझे ज़िंदगी
ढूँढ़ रहा हूँ
पथिकों के पद-चिह्न वही
जिनमें जीवन सरिता बहती
या फिर जीवन धड़का-धड़के
यौवन है जिन चिह्नों में
जिनमें है वह जीवन ज्योति
ज्योति से मैं जोत जला
सुलगाता जाऊँ धड़कन ताज़ा
यौवन की उस धारा अंदर
अक्षर रूप हूँ ढाल रहा
इस गाथा को हर मोड़ के ऊपर
दिशा है इसकी मैंने बदली
एक नयापन जोड़ दिया है
पर मोड़ दिए हैं मैंने कितने
याद मुझे न आती इसकी
समय की आँधी के संग
वर्क़ नया इक दिखता जाता
जिन काँटों में है दुविधा
उन काँटों की धड़कन से भी
नए पन्नों की छाती पर है
सीधी-सरल कहानी अंदर
सदा ख़ालिस भाषा में है
लेख किया आरंभ नया
और कली नई इक छेड़ी है
यह गाथा मेरी, वृक्ष है ऐसा
जिसकी जड़ है मेरे भीतर
निकल के मेरी छाती में से
नीचे गहरी चली गई है
टहना ऊपर बढ़ता जाए
मैं हूँ जैसे आम की गुठली
लहू-जिगर से सींच के इसको
ऊपर-ऊपर बढ़ा रहा हूँ
गहरा खूब पैठा रहा हूँ
मेरी छाती का यह पौधा
गाथा मेरे जीवन की है।
पल-पल जो है बढ़ता जाए
क्षण-क्षण जो है रसता जाए
कहीं डाल सघन हैं इसके
उनमें कोमल कल्ले फूटे
ओर उगे हैं कंटक गुच्छे
कहीं दिखें शर्मीली कलियाँ
या मुस्काते फूल दिखे हैं
बौर दिखे हैं कहीं-कहीं तो
बेबस रोती ओस कहीं पर
ये सब सारे शान हैं इसकी
ये सब सारे जान हैं इसकी
डालें इसकी माप न पाऊँ
पत्ते इसके गिन न पाऊँ
जान सका हूँ मैं बस इतना
इसको बस मैं इसको सींचूँ
सूख कहीं न जाए पौधा
झड़ न जाए बौर इसका
फल का मौसम आएगा
कोई फल भी इसका पाएगा
है पक्का यह विश्वास मेरा
जब कोई आँधी आती है
पत्तों के संग हृदय भी मेरा
कंपित होता रहता है
मेरे जीवन की यह गाथा
पूरी जब हो जाएगी
मैं इसको पढ़ न पाऊँगा
मैं इसको सुन न पाऊँगा
रूप है इसका क्या बतलाऊँ
रंग है इसका क्या दिखलाऊँ।
- पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 187)
- संपादक : ओम गोस्वामी
- रचनाकार : मोहनलाल सपोलिया
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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