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दीमक

dimak

पायल भारद्वाज

और अधिकपायल भारद्वाज

    जिस पर टिकी घड़ी की सुइयाँ

    उसके चारों ओर सरपट दौड़ते हुए

    कई पूर्ण कोण बनाती हैं

    लेकिन जिसके हिस्से समय का

    एक न्यूनतम कोण भी नहीं

    रसोईघर के सामने लगी दीवार घड़ी के

    ठीक बीचोंबीच स्थित

    वह कील हूँ मैं

    मैं भागते हुए समय का पिछड़ा

    और छूटा हुआ वह सिरा हूँ

    जिसे विगत जीभ चिढ़ाता है

    और आगत डराता है

    जिसे तो आगे बढ़ने की चाहत है

    और ही पीछे लौटने की सहूलत

    ज़िंदगी के साइड इफ़ेक्ट्स

    सुरसा की तरह मुँह फैलाए जाते हैं

    और मुझे हनुमान की तरह

    स्वयं को संक्षिप्त कर बच निकलने की कला भी नहीं आती

    उसने कहा था—मुझे भूल जाओ

    यह बात रोज़ याद आती है

    क्या भूलना है यह याद रहता है

    क्या याद रखना है याद नहीं

    दिमाग़ की मकड़ी अपने ही जाल में फँसी कुलबुलाती है

    ‘आख़िरी बार क्या अच्छा लगा था…?’

    मैं कहती हूँ—

    ‘…याद नहीं, शायद समंदर

    बिल्कुल अपने जैसा…

    खारा और नीरस, जीवन से उकताया हुआ…’

    वे कहते हैं—

    ‘समंदर उल्लास है और जीवन वरदान…’

    सुनकर मन की मटकी से ऊब छलक जाती है

    सुनो! रात के सन्नाटे में मेरे सीने से आती आवाज़ सुनना

    दीमक के कुतरने की आवाज़

    ऊब दीमक है और मेरा जिस्म लकड़ी का ढाँचा

    तुम देख सकते हो इस ढाँचे को मिट्टी होते हुए?

    मेरी मिट्टी को समंदर के हवाले करना

    मुझे यक़ीन है इस बार वह मुझे नहीं ठुकराएगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पायल भारद्वाज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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