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सत्ताएँ

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अनिल मिश्र

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सत्ताएँ

अनिल मिश्र

और अधिकअनिल मिश्र

    कुछ सत्ताएँ पृथ्वी को स्वादिष्ट व्यंजन समझती रहीं

    अपने मेज़ की थाली में सजाना चाहा उसे

    और चाकू से काटकर सैकड़ों टुकड़े, करना चाहती थीं उदरस्थ

    यह कभी ख़त्म होने वाली भूख के हाथों

    पृथ्वी की हत्या का प्रयास था

    पृथ्वी कराहती रही घायल

    अपनी दुनिया के फैले विषैले जंगल में

    किसी हिरन की उतारी गई खाल से बनी खजड़ी

    जब बजती है तो उसका अर्थ समझते हैं

    सभी पशु-पक्षी अच्छी तरह

    राजा अश्वमेध यज्ञ कर घोड़े की बलि देता है

    और सभी अधीन राजाओं को यह देखने के लिए आमंत्रित करता है

    इस तरह बनता है चक्रवर्ती सम्राट

    बध की गई सुबह का आर्तनाद

    एक शहर से दूसरे शहर तक पहुँचता है

    थरथराता है नदी का तट

    दिन रात शिकारियों के होठों से टपकती है वासना की लार

    रक्त से रंगे घास के मैदान चेतावनी जारी कर रहे होते हैं आने वाले दिनों की

    एक बूढ़ी स्त्री की घोंटी गई श्वाँस पर

    खड़ी होती है शहर की सबसे भव्य इमारत

    चने की खूँट जैसी ज़िद को चुकानी पड़ी भारी क़ीमत

    माँशपेशियों का विगलित विचार किंवदंतियों की शक्ल में आज भी घूमता है

    वह छली गई इस दुष्प्रचारित वाक्य से कि अंततः न्याय की जीत होती है

    तिश्नगी प्रेतिनी-सी नाचती है महलों की अट्टालिकाओं पर

    युद्ध में अकाल मृत्युओं के दृष्यों से

    तनिक और बेशरम हो जाता है समाचार

    शाँति वार्ताओं की मेज़ों पर कटे हुए सिरों की अदला-बदली होती है

    चित्रों में मुस्कराते हैं तानाशाह एक-दूसरे से मिलाते हुए हाथ

    स्नानघरों में बनाई गई तस्वीरों से भी

    अश्लील योजनाओं में बनाए गए हैं नए मानचित्र

    नगर नगर घूमती हैं विषकन्याएँ प्रेम के मारती हुई तीर

    धर्म की जगह ध्वजाएँ घूमती हैं सतरंगी डंडों पर

    बंदूक की नली से निकली पहली गोली आजमाती है शत्रु का सब्र

    बादलों को करके एक बगल बिजलियाँ बरसीं हरे-भरे खेतों पर

    अपने पैरो पर आई गेंद को रेफ़री ने जिधर चाहा उधर मारा

    चित्र प्रदर्शनी देखने आया बाघ अपनी पूँछ से बनाता है श्वेत कबूतर

    और सभी कलाकारों को भोज पर आमंत्रित करता है

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनिल मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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