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चक्रव्यूह

chakravyuh

अशोक

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और अधिकअशोक

    खाली तकैत रहबा पर

    खाली सोचैत रहबा पर

    विवश हे हमर पुरुष!

    मोनमे कुण्डली मारने बैसल

    साँपकेँ झमारि फेकू

    भयमुक्त होउ।

    उठाउ रथक पहिया

    व्यूहमे घेरायल अभिमन्यु जकाँ

    लड़ैत रहब जँ धर्म थिक

    तँ जीत-हारिक चिन्ता

    जुनि करू।

    मानल जे अहाँक आगूक कौरव

    अधार्मिके नहि भ्रष्टो छथि

    कहुखन कऽ पाण्डवोक भेष

    धऽ लैत छथि।

    भेष बदलबामे निपुण

    अपन शत्रुकेँ चिन्हबाक

    दृष्टि परसँ

    मोहक रेशमी पर्दा उठाउ।

    उबारि लिअऽ अपनाकेँ

    अनेक कमजोर क्षणक दासत्वसँ

    निकलि चलू, निकलि चलू

    अतीतक फुसियाह

    भविष्यक महत्त्वाकांक्षी

    स्वप्न महलक दुर्गसँ बाहर।

    वर्त्तमान कोनो प्लास्टिकक

    फूल नहि थिक बन्धु!

    जकरा खाली मोनक देवाल

    पर टंगने रहब।

    वर्त्तमान कोनो नव भेरायटीक

    कैक्टसो नहि थिक

    जकरा अपन बालकनीमे कोनो

    गमला रोपने रहब।

    वर्त्तमान तँ आइ विस्तृत कुरुक्षेत्र थिक

    जतऽ आइ ने युधिष्ठर छथि

    ने अर्जुन

    ने धर्म-कर्मक उपदेश देनिहार

    गीताक कृष्ण।

    आइ तँ कुरुक्षेत्रमे

    चक्रव्यूह रचल अछि

    मात्र एकटा टूटल रथक

    पहिया राखल अछि।

    आउ हे हमर पुरुष, आउ!

    कमसँ कम

    टूटल रथक पहिया उठाउ

    लड़ैत रहब जँ धर्म थिक

    तँ जीत-हारिक चिन्ता जुनि करू।

    पहिया उठाउ, पहिया उठाउ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चक्रव्यूह पसरैत (पृष्ठ 7)
    • रचनाकार : अशोक
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2023

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