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धरावतरण

dharawatran

अनुवाद : दिनेश कुमार माली

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    तुम सोच रहे होगे, हमारी धरती पर अधर्म का भार

    बढ़ जाने से

    स्वधर्म भूलकर अँधेरे, असत्य और मौत के जाल में

    हम मर्त्यवासियों के छटपटाने पर

    स्वर्ग से देवता उतरकर आते हैं समय-समय पर

    ख़ास हमारे परित्राण के लिए?

    नहीं

    स्वर्ग के चकाचौंध में अंधे होकर

    मुक्ति की अभिलाषा करते हैं वहाँ के दीर्घकाय दिव्यरूप देवता

    तिलमिलाकर भाग जाते हैं

    हमारे पास, धरती के अंधकार में

    रत्न-सिंहासन तक तड़पते लगते हैं उनकी याद में

    चमचमाते हीरे, नीलम, मणी-माणिक्य

    रत्न-मुकुट, दिव्य-वस्त्र, आभूषण

    सारे तुच्छ समझकर वे खोजने लगते हैं बालू और कीचड़

    मीठे बेर, मवेशियों के झुंड

    दो, उनको मित्र बनने दो!

    अप्सराओं का नृत्य, आकर्षक भाव-भंगिमा

    हमेशा देखकर थक जाती हैं आँखें और जम्हाई लेता है

    बिछौने पर लेटा हुआ मन

    खोजने लगता है स्नानरत निर्वस्त्र तरुणी के जिस्म की

    मनमोहक आकृति

    झील में, कल-कल नाद करते हुए खुले तट पर

    सुनाई पड़ने लगती है माँ की स्नेहमयी आवाज़,

    पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, नदी-पहाड़ों की पुकार

    फिर एक बार कानों में

    हमारे लिए नहीं धरावतरण

    हमारे कीचड़, हमारे कष्ट

    हमारे कर्म-फल, हमारे मरण, हमारे अंधकार

    हमारी अदृश्य चोटें, हमारी यातनाएँ, हमारा हाहाकार

    इन सभी के भीतर थोड़ी-सी थकान मिटाने के लिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओडिया भाषा की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 162)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : यश पब्लिकेशंस
    • संस्करण : 2012

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