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देवरिया में आत्महत्या

devariya mein atmahatya

विवेक कुमार शुक्ल

विवेक कुमार शुक्ल

देवरिया में आत्महत्या

विवेक कुमार शुक्ल

और अधिकविवेक कुमार शुक्ल

    वास्तव में वह दुपहर आत्महत्या करने लायक़ नहीं थी

    जब शहर हनुमान मंदिर के ताज़ा छने समोसों के करारेपन में डूबा था

    और समय गोलगप्पों में पानी की तरह भरा जा रहा था

    और मेरे पास आत्महत्या करने की कोई ठोस कही जा सकने वाली वजह भी नहीं थी

    पर जैसे दुनिया में लाखों चीज़ों के होने की कोई वजह नहीं होती

    और वे घटती रहती हैं इर्द-गिर्द

    आत्महत्या भी उन चीज़ों की फ़ेहरिस्त में महीन अक्षरों में लिखी थी

    आत्महत्या के तरीक़ों के बारे में देर तक सोचने के बाद

    मैं एक तेज़ चाक़ू ख़रीदने मालवीय रोड की ओर चला गया

    मैंने सोच रखा था कि चाक़ू की तेज़ धार भीतर उतरते-उतरते

    मैं शांति से भर जाऊँगा

    पर मैंने पाया कि वह शनिवार का दिन था

    और बंद थीं बर्तन बेचने की दुकानें

    देवरिया में शनिवार को लोहा ख़रीदने-बेचने पर ग्रहों की पाबंदी थी

    मुझे लगा दूसरा आसान तरीक़ा होगा

    चूहेमार दवा या सल्फ़ास खाने का

    चूहेमार दवा बेचने वाली दुकानें

    अतिक्रमण हटाओ अभियान में तोड़ दी गई थीं

    इसलिए मैं सल्फ़ास ख़रीदने मोतीलाल रोड की दवा की दुकानों की ओर बढ़ गया

    पर दुकानदार ने बताया कि सारा सल्फ़ास गन्ना-किसान ख़रीद ले गए हैं

    जिनकी पर्चियाँ अब तक नग़द नहीं हुईं

    और चीनी मिल कब की बंद हो गई

    जो थोड़ा सल्फ़ास बचा था

    वे असफल प्रेमियों, परीक्षा में फ़ेल हुए विद्यार्थियों,

    जबरिया शादी के लिए मना नहीं कर पा रही लड़कियों

    और बाबा राघव दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

    संत विनोबा से निकले बेरोज़गारों के लिए आरक्षित था

    मैं इनमें से कोई नहीं था

    और जैसा कि मैंने बताया—

    नहीं थी मेरे पास आत्महत्या की कोई ठोस वजह

    कि उसके वज़न से ही पसीज जाए दुकानदार का दिल

    और मुझे मिल जाए थोड़ा-सा सल्फ़ास

    कोई और रास्ता देखकर मैं बढ़ गया स्टेशन की ओर

    कि किसी आती जाती ट्रेन के नीचे जाऊँगा

    हालाँकि आत्महत्या की यह तकनीक एक पीढ़ी पुरानी थी

    और तब के असफल प्रेमियों का तरीक़ा हुआ करती थी

    स्टेशन जाने पर मालूम हुआ कि उन दिनों पैसेंजर ट्रेनें बंद थीं

    सरकार ने मान लिया था कि

    ग़रीब अब हवाई चप्पलें पहने उड़ते हैं जहाज़ों में

    या निकल पड़ते हैं दिल्ली-मुंबई से पैदल ही गाँव की ओर

    स्टेशन के बोर्ड ने बताया कि एक्सप्रेस ट्रेन कहीं रास्ते में हैं

    पर उन दिनों एक्सप्रेस ट्रेनें इतना भटकती थीं

    कि उनके आने का इंतिज़ार वैसे ही बेमानी था

    जैसे देवरिया के राजकीय पुस्तकालय में नई किताबों के आने का

    मुझे आत्महत्या की इतनी ज़ल्दी थी

    कि मुझसे नहीं हुआ इंतिज़ार एक्सप्रेस ट्रेन का

    और मैं बढ़ गया कुरना नदी की ओर

    पर कुरना नदी नाले में बदल चुकी थी

    और नदियों को फिर से बहाने,

    उन पर कविताएँ लिखने वाले,

    कुरना को फिर से नदी बनाने की बात करने वाले

    अधिकारी का तबादला अलीगढ़ कर दिया गया था

    कि वह पूछता रहता था सवाल—

    ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’1

    मेरे पास अब भी नहीं है

    आत्महत्या के लिए ठोस कही जा सकने वाली वजह

    मैं अब भी आत्महत्या के चूकने वाले तरीक़ों की तलाश में

    देवरिया में हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विवेक कुमार शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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