सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई क़ीमत नहीं होती
नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे शृंगार की ग़लतियाँ
चंद्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी में दबे-दबे मुस्कराती हैं मालकिनें
तुम्हारी ख़ुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो
भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
तुमने जतन और क़िफ़ायत से ख़रीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदुरी हथेलियों में
कुछ-कुछ ज़्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दख़ल किए जाता है
दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी है दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टक्कर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला
जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतज़ार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन
कुछ ऐसे देखेंगे लापरवाही से जैसे नहीं देखते हों
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे नहीं देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन को ख़त्म हो जाता है
ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो।
- पुस्तक : समकालीन सृजन : कविता इस समय (पृष्ठ 388)
- संपादक : मानिक बच्छावत
- रचनाकार : राजेश सकलानी
- संस्करण : 2006
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