कठ-करेज समय
उनको बाँट-बखरे में जो थोड़ा बहुत बसंत मिल सकता था
वो भी हाथ में नहीं आया
हर हिस्से में बड़ी हिस्सेदारियाँ थीं
जैसे आदम युग से संपत्तियों का बँटवारा
जिसमें जेठसी और एकलवारिया आरक्षित होते थे
प्रेम तो उससे भी आदिम था
उसके यहाँ ये अवस्थाएँ चरम पर थीं
मैं भी वहीं थी पर उस हाईटेक चलन में मेरी उपस्थित मध्यमा रही तो मेरा दुःख भी मध्यम रहा
उस गलजोड़ में ख़ूब शकर-मुद्धियाँ थी जिसमें ठहराव से ज़्यादा गला कसने की सहूलियत थी
मैं वहाँ अड़ीची-सी खड़ी रही
प्रेम के उस परगने में बहराम कराने की लत थी और इधर मैं नास्तिक हो रही थी
उन आत्माओं में अलख-सा जगता एक नाम ऐसे चिपका था कि
दहकती सलाख़ों से ही उसे छुड़ाया जा सकता था
मन की ये शल्यक्रिया बेहद तकलीफ़देह थी
तो चुप रहकर एक पीड़ा से समझौता हुआ
नमक के धेले-सी ग़लती देहों से न पूछना उनके बसंत का मिज़ाज
हतभागे क्या जाने बसंत का वैभव
अघान में डूबे बड़भागे बैठते हैं बसंत की अभिजाती गोद में
अलसी के फूलों जैसा प्रेम अब काला हो गया है
इस कठ-करेज समय में कहीं कोई बसंत नहीं है
धरती की देह पर कंक्रीट उग रहा है
ईंट-भट्ठे का उजाड़पन सारे सिवान पर छा रहा है
खेतों से रेह उड़ रही है
गहदूरिया में ही लौटान होता है और साँझ हो गई दिया-लेसान की बेला
पर अजोर कैसे हो जंगल की तरफ़ गई गिलहरियाँ और गौरैया लौटकर घर नहीं आईं
हर तरफ़ धुआँ है सारी शाख़ों पर धूल पड़ी है
तितलियों का दम घुट रहा है।
- रचनाकार : रूपम मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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