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पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न जो कभी पूछा था माँ ने पिता से

patni puchhti hai kuch waisa hi parashn jo kabhi puchha tha man ne pita se

जितेंद्र श्रीवास्तव

जितेंद्र श्रीवास्तव

पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न जो कभी पूछा था माँ ने पिता से

जितेंद्र श्रीवास्तव

जी, ये लोकतंत्र क्या होता है?

पूछा था माँ ने पिता जी से

कई वर्ष पहले जब मैं किशोर था

माँ के सवाल पर

थोड़ा अकबकाए फिर मुस्कुराए थे पिताजी

माँ समझ गई थी

वे टाल रहे हैं उसका सवाल

उसने फिर पूछा था—

बताइए न, ये लोकतंत्र क्या होता है?

अब पिता सतर्क थे

‘सतर्क’ के हर अर्थ में

उन्होंने कहा था—

तुम जानती हो लोकतंत्र की परिभाषा उसके निहितार्थ

पढ़ाती हो बच्चों को

फिर मुझसे क्यों पूछती हो, क्या दुविधा है?

माँ ने कहा था—

दुविधा ही दुविधा है

उत्तर की सुविधा भी एक दुविधा है

जो शब्दों में है

अभिव्यक्ति में पहुँच नहीं पाता

जो अभिव्यक्ति में पहुँचता है

जीवन में उतर नहीं पाता

ऐसा क्यों है

प्रेम की तरह लोकतंत्र दिखता खुला-खुला सा

पर रहस्य है!

जब जो चाहे

कभी भाषा से

कभी शक्ति से

कभी भक्ति से

कभी छल कभी प्रेम से

अपनी सुविधा की व्याख्या रच लेता है

और काठ के घोड़े-सा लोकतंत्र टुकुर-टुकुर ताकता रह जाता है

यह सब कहते हुए

स्वर शांत था माँ का

कोई उद्विग्नता, क्षणिक आवेश, आवेग, आक्रोश था उसमें

जैसे कही गई बातें महज़ प्रतिक्रिया हों

निष्पत्तियाँ हों सघन अनुभव की

लोकतंत्र की आकांक्षा से भरे एक जीवन की

और यह सब सुनते हुए

जादुई वाणी वाले सिद्ध वक्ता मेरे पिता

चुप थे बिल्कुल चुप

जैसे मैं हूँ इस समय

उस संवाद के ढाई दशक बाद

अपनी पत्नी के इस सवाल पर

जी, ये बराबरी क्या होती है?

स्रोत :
  • रचनाकार : जितेंद्र श्रीवास्तव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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