देखना फिर से शुरू किया दुनिया को
dekhana phir se shuru kiya duniya ko
लक्ष्मीकांत मुकुल
Laxmikant Mukul
देखना फिर से शुरू किया दुनिया को
dekhana phir se shuru kiya duniya ko
Laxmikant Mukul
लक्ष्मीकांत मुकुल
और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल
उस भरी दुपहरी में
जब गया था घास काटने नदी के कछार पर
तुम भी आई थी अपनी बकरियों के साथ
संकोच के घने कुहरे का आवरण लिए
अनजान, अपरिचित, अनदेखा
कैसे बंधता गया तेरी मोह्पाश में
जब तुमने कहा कि
तुम्हें तैरना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी नदी की धार
पूछें डुलाती मछलियाँ
बालू, कंकडों, कीचड़ से भरा किनारा
जब तुमने कहा कि
तुम्हें उड़ना पसंद है नील-गगन में पतंग सरीखी
मुझे अच्छी लगने लगी आकाश में उड़ती पंछियों की क़तार
जब तुमने कहा कि
तुम्हें नीम का दातून पसंद है
मुझे मीठी लगने लगी उसकी पत्तियाँ, निबौरियाँ
जब तुमने कहा कि
तुम्हें चुल्लू से नहीं, दोना से
पानी-पीना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी
कुदरत से सज्जित यह कायनात
जब तुमने कहा कि
तुम्हें बारिश में भींगना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी
जुलाई–अगस्त की झमझम बारिश, जनवरी की टुसार
जब तुमने कहा कि यह बगीचा
बाढ़ के दिनों में नाव की तरह लगता है
मुझे अच्छी लगने लगी
अमरुद की महक, बेर की खटास
जब तुमने कहा कि
तुम्हें पसंद है खाना तेनी का भात
भतुए की तरकारी, बथुए की साग
मुझे अचानक अच्छी लगने लगीं फसलें
जिसे उपजाते हैं श्रमजीवी
जिनके पसीने से सींचती है पृथ्वी
तुम्हारे हर पसंद का रंग चढ़ता गया अंतस में
तुम्हारी हर चाल, हर थिरकन के साथ
डूबते–खोते–सहेजने लगी जीवन की राह
मकड़तेना के तना की छाल पर
हंसिया की नोक से गोदता गया तेरा नाम, मुक़ाम
प्रणय के उस उद्दात्त क्षणों में कैसे हुए थे हम बाहुपाश
आलिंगन, स्पर्श, साँसों की गर्म धौंकनी के बीच
मदहोशी के संवेगों में खो गए थे
अपनी उपस्थिति का एहसास
हम जुड़ गए थे एक दूजे में, एकाकार
पूरी पवित्रता से, संसार की नज़रों में निरपेक्ष
मनुष्यता का विरोधी रहा होगा वह हमारा अज्ञात पुरखा
जिसने काक जोड़ी को अंग–प्रत्यंग से लिपटे
देखे जाने को माना था अपशकुन का संदेश
जबकि उसके दो चोंच चार पंख आपस में गुँथकर
मादक लय में थाप देते सृजित करते हैं जीवन के आदिम राग
पूछता हूँ क्या हुआ था उस दिन
जब हम मिले थे पहली बार
अंतरिक्ष से टपक कर आए धरती पर
किसी इंद्र द्वारा शापित स्वर्ग के बाशिंदे की तरह नहीं
बगलगीर गाँव की निर्वासिनी का मिला था साथ
पूछता हूँ कल-कल करती नदी के बहाव से
हवा में उत्तेजित खडखड़ाते ताड के पत्तों से
मेड के किनारे छिपे, फुर्र से उड़ने वाले ‘घाघर’ से
दूर तक सन्-सन् कर संदेश ले जाती पवन-वेग से
सबका भार उठाती धरती से
ऊपर राख़ के रंग का चादर फैलाए आसमान से
प्रश्नोत्तर में खिल-खिलाहट
खिल-खिलाहटों से भर जाती हैं प्रतिध्वनियाँ
यही ध्वनि उठी थी मेरे अंतर्मन में
जब तुमने मेरे बिखरे बालों को उंगलियों से की थी कंघी
देखना फिर से शुरू किया मैंने इस दुनिया को
कि यह है कितनी हस्बेमामूल, कितनी मुक़द्दस।
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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