उस आकाश और इस धरा के बीच
जहाँ क्षितिज विस्तार पाता है
वहीं उसी बिंदु पर पाती हूँ मैं तुम्हें
हर रोज़ देखती हूँ तुम्हें
अतीत की गहराइयों में उतर कर खोते हुए
समझती हूँ तुम्हारी अवशता
कि कितना मुश्किल है
उस जिए हुए से छूटना
जिसकी गंध
अब तक हवाओं में घुली हुई है...
फिर मैं क्या करूँ?
समेट लाऊँ
उस बिखरे हुए सन्नाटे को
हमारे बीच
या कि हो जाऊँ मौन
तुम्हारे मौन पर
या कि बन जाऊँ
बिना प्रत्याशा की बहती हुई
कई-कई रंगों की नदी
या कि गिनती रहूँ
तुम्हारे वजूद के आरोह-अवरोह में
कसती-ढीली पड़ती
अपनी साँसों की गाँठ को...
सुनो दरवेश!
उस निस्तब्ध काली रात में
जब हम एक साथ करेंगे इंतज़ार
अपने-अपने हिस्से के प्रेम का
उस एकांत में
जब मैं गुनगुनाऊँगी
अपनी धड़कनों के शोकगीत
और दबे पाँव उठा लाऊँगी
मुट्ठी भर महकते पारिजात
कुछ चंपई सितारे
और एक पूरा चाँद
तो तुम ऐसा करना
मेरे सबसे अधिक
उदासी वाले उन दिनों में सुनाना
अपनी सबसे प्रिय प्रेयसी की बातें
उससे जुड़ा अपना सबसे मीठा सपना
उसके लिए लिखी अपनी सबसे ख़ूबसूरत नज़्म
और हँसना अब तक की अपनी सबसे बेपरवाह हँसी
मैं ऐसा करूँगी
तुम्हारे घुटनों पर सिर टिकाए
सुनती रहुँगी तुमको देर तक
और धीरे-धीरे सो जाऊँगी
अब तक की अपनी सबसे गहरी नींद में
तुम ऐसा करना
ओस-सी धुली सुबह में जगाना मुझे...
- रचनाकार : स्मिता सिन्हा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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