दरवाज़े के बाहर ही खड़ी होती है
darwaze ke bahar hi khaDi hoti hai
दरवाज़े के बाहर ही खड़ी होती है
कविता की पहली पंक्ति
किसी जादुई आवेश में
खुल जाता है दरवाज़ा
पंक्ति वह गले से लिपट जाती है मेरे
मेरे बिस्तर तक आ जाती है
एक दूसरी पंक्ति शीशे की खिड़की पर
गिलहरी की तरह घूमती है
नहीं, फुदकती है
तीसरी पंक्ति सामने आकाश में उड़ती है
मेरी आँखों के सामने
और अब आँखों से दूर
गगन में ग़ोते खाती
इस बीच उसमें शामिल हो जाता है राहगीर
सड़क पर सामने शीर्षक की तरह चला आता
उसे अभी प्रतीक्षा करनी होगी
शीर्षक सबसे आख़िर में दिया जाएगा
इधर देखिए न जाने कितनी पंक्तियाँ
घर की बेतरतीबी में से झाँक रही हैं
उसके गर्द-ओ-ग़ुबार
और रसोई की महक में
ऊपर जाती सीढ़ी के तीसरे पायदान पर
अटकी धूप में
यही है कविता
जिसके बारे में इतना शोर मचा रहता है
- रचनाकार : सत्यपाल सहगल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.