दर्दनाक घटनाओं पर कविता नहीं लिखी जा सकती,
संभव ही नहीं है।
मेरा मतलब है कि विश्वसनीय नहीं होगा, कवि के लिए,
कि उधर पुलिस थाने में बलात्कार की ऐसी घटनाएँ घट रही हैं,
कि महिला के अंदर से कई अंग बाहर निकल आए
और आप कविता रच रहे हैं,
और पाठक के लिए भी,
कि उसने शहरों में निम्न मध्यवर्गीय जीवन बिताया है,
उसके अनुभव संसार से जुड़ ही नहीं पाएगी वह कविता
जो सोनी सोरी के लिए लिखी गई है या कवासी हिड़में के लिए।
दर्दनाक घटनाओं की रिपोर्टिंग भी नहीं की जा सकती।
मेरा मतलब है कि कौन लिखेगा रिपोर्ट।
न पुलिस, न रिपोर्टर।
जिस मीडिया की हेडलाइन भी बिकी हुई है
और जो उसके साथ मिल कर लड़कियों की सुरक्षा का चला रहा है कैंपेन
जो जंगल के जंगल काटने में लेता है उसी पुलिस की मदद
जो बलात्कार करना कर्तव्य समझती है।
जिसकी देश भक्ति तभी जागती है जब कोई ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ लगाता है।
दर्दनाक घटनाओं पर कभी इंसाफ़ भी नहीं मिल सकता।
मेरा मतलब है कि कौन करेगा इंसाफ़।
जब गवाहों से पूछे ही नहीं जाएँगे सवाल,
जब तथ्यों को रखा ही नहीं जाएगा सामने,
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि जजों को कुछ मालूम नहीं है, तो कैसे होगा इंसाफ़?
हर फ़ैसले के पहले जज अपनी खिड़की के पर्दे हटा
एक बार ज़रूर लेता है जन-भावना की टोह
फिर लिखता है इंसाफ़।
और जज की खिड़की से जो दिखता है जन, उसे केवल अपनी ही ख़बर है।
बिना अनुभव के दर्दनाक घटनाओं के पक्ष में नहीं निकलेगी आवाज़।
उन घटनाओं की यह धमकी है कि आप इंतज़ार करें वैसी ही घटनाओं का।
इंतज़ार करें कि आपके साथ भी बलात्कार हो।
- रचनाकार : फ़रीद ख़ाँ
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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