मंगलेश को एक चिट्ठी
रात चूँ-चर्र-मर्र जाती है
ऐसी गाड़ी में भला नींद कहीं आती है?
इस क़दर तेज़ वक़्त की रफ़्तार
और ये सुस्त ज़िंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पाँच ऐसी के
पाँच में ठुँसा हुआ बाक़ी वतन
आत्मग्रस्त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष
प्यारे मंगलेश
अपने लोग फँसे रहे चीं-चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
लोगों के दुःख तनिक कम न हुए बढ़े और बढ़े और और
प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी
प्यार सहित पाना आसान नहीं
बेगाने हुए स्वजन
कोमलता अगर कहीं दीख गई आँखों में, चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेस। प्यारे मंगलेश।
रात विकट विकट रात विकट रात।
दिन शीराज़ा।
शाम रुलाई फूटने से ठीक पहले का लंबा पल।
सुबह भूख की चौंध में धुलती नींद।
दाँत सबसे विचित्र हड्डी
तैश में लगातार फ़्लैट की बालकनी से
भौंकता छोटी नस्ल का व्यक्तित्वहीन कुत्ता
टेलीविज़न
अख़बार भाषा की खुजाती हुई बड़ी आँत
विश्वविद्यालय बेरोज़गारों के बीमार कारख़ाने
गुंडों के मेले राजधानियाँ
कलावा बाँधे गद्-गद् खल विदूषक
सोने के मुकुट पहनते उतरवा रहे हैं फ़ोटो
प्राथमिक शाला के प्रांगण में
नाच रहा है विभोर विश्वबैंक का कार्याधकारी
बावर्दी बेवर्दी हत्यारे
रौंद रहे गाँव-गाँव-नगर-नगर
एक प्रेतलीला-सी जैसे चलती रहती है लगातार।
दिल को मुट्ठी में भींचे
घसीटता लेता चला जाता है कोई
बिना देखे पार कर जाता हूँ उन नवेली गाड़ियों का
ख़तरनाक शाँय-शाँय ट्राफ़िक
जा पहुँचता हक्का-बक्का कर देने वाले मगर बंजर सभागार में
जहाँ छत से लगातार बरसती
रेत और गिट्टियाँ।
उधर मेरे अपने लोग
बेघर बेदाना बेपानी बिना काम मेरे लोग
चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हर ठौर
अपने देश की हवा में।
फ़िलहाल श्रवण सीमा से आगे इसीलिए अश्रव्य है
उनका क्षुब्ध हाहाकर
घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी
सुरती ठोंकता हुआ कर रहा हूँ मैं
प्रागैतिहासिक रात के बीतने का यहीं इंतज़ार।
फ़िलहाल तो यही हाल है मंगलेश
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
संशय ख़ुसरो की बातों में
ख़ुसरो की आँखों में डर है
इसी रात में अपना घर है।
- पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 200)
- रचनाकार : वीरेन डंगवाल
- प्रकाशन : नवारुण
- संस्करण : 2018
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