वह जो भाषा की क़ैद है

wo jo bhasha ki qaid hai

ऋतेश कुमार

ऋतेश कुमार

वह जो भाषा की क़ैद है

ऋतेश कुमार

और अधिकऋतेश कुमार

     

    एक

    एक युवा कवि की कविता में दरवाज़े-सी मज़बूत है 
    पिता की छाती
    दादा है सूरज की तस्वीर
    और माँ सिर सहलाता हाथ 
    बहन पैर की उँगलियाँ चटकाती मासूम
    इसमें मैं क्या देखूँ? 
    शाम दोस्तों के साथ
    पैग लगाता हूँ 
    चखना खाकर कहता हूँ 
    मेहरा गया है
    (नहीं तो वह चना ज़ोर गर्म होता)
    मतलब कि नरमाना मेहरियों का गुण धर्म है
    यह मैंने कहाँ से सीखा? 
    तभी याद आता है कि
    युद्ध लड़ती झाँसी की रानी भी तो मर्दानी हो जाती हैं
    सुभद्रा के यहाँ
    'जाग तुझको दूर जाना' पढ़ते हुए मन में सवाल उठा था
    कि यहाँ पर छाप देते कवि का नाम
    महादेव वर्मा
    तो क्या हम समझते कि वह एक स्त्री की कविता है? 

    मैं सोच ही रहा होता हूँ कि
    भाषा के ग़ुलाम मुहावरों से 
    और कोमल प्रतीकों के बास मारते अलंकारों से
    स्त्री अब मुक्त ही होने वाली है
    एक बुज़ुर्ग अपनी कविता में
    स्त्रियों का करता है आह्वान : 
    'मुझे जूठा करो'

    दो

    अपनी विनम्रता में मैं अक्सर मउगा हुआ
    दुख में जब-जब रोया दिखा मेहरारू-सा 

    सिर में थोड़ा जो तेल हुआ ज़्यादा कभी
    झिड़का गया  
    तेली जैसा तेल चपोड़ने के लिए 

    थोड़ा दिखा गंदा तो
    डाँट पड़ी  
    क्यों चमारों जैसा हुलिया बनाए घूम रहे हो 

    पंछी में कौआ
    और आदमी में नौआ की कहावत सुनाते हुए बताया गया
    नया हजाम अहिरे के माथे पर सीखता है केस काटना
    समझाया गया कि कायथ का बच्चा कभी सच्चा नहीं होता 

    माँ जो न हो सकीं पिता की तरह समझदार
    ताने की रहीं हक़दार
    औरतों की बुद्धि उनके घुटनों में होती है
    नाक ना हो तो गू खा लें 

    (कहने को तो सभी झगड़ों की वजहें ज़र, जोरू और ज़मीन 
    को बताया गया
    पर धीरे-धीरे मैं जान गया कि
    सारे रामायण-महाभारत के झगड़े की जड़ औरतें ही हैं
    जिनके लिए बनी हैं लक्ष्मण-रेखाएँ
    जिसने भी लाँघा बेघर हुईं
    बनी कुलटाएँ 

    मैं जानने लगा कि कुछ लोग मियाँ भी होते हैं
    जो हिंदुओं से उल्टा होते हैं
    यहाँ तक कि 
    शौच के समय भी खेत में 
    वे आगे नहीं पीछे हटते हैं 

    मैं सीखता गया हर बात बिना सवाल 
    एक अच्छे बच्चे की तरह
    नफ़रत करना भी 

    महापात्रों को गाँव के सिवान तक भगाया मैंने
    झोरी-झंटा वाले को चिढ़ाया
    बाभन जात, अन्हरिआ रात, एक मुट्ठी चिउड़ा पर दौड़ल जात
    पंडी जी पंडोल-डोल पइसा माँगे गोल-गोल 

    ब्रह्महत्या जाना
    गौहत्या जाना
    सती के मर्म को समझा
    क्षत्रिय के धर्म को माना
    मनुष्य कुछ यूँ गया जाना कि
    जो सोचता हूँ अब
    जिस भाषा में बतियाता हूँ
    वह बँधी है दर्प और हीनता के लिजलिजे धागे से
    मेरी बातों में
    (लाख सावधानी के बाद भी)
    उभर आते हैं जाति, धर्म और लिंग के काँटे 

    चोरी लिखता हूँ
    तो चमारी चला आता है सटा हुआ
    और चोर के साथ आ जाता चुहाड़ 

    क्रोध में माँओं बहनों की 'उसको' 
    फाड़ देने की दहाड़
    बिल्कुल सहज सी बात होती है
    (और इस 'सु'संस्कार की छाँव में
    पूरी धरती पर
    अच्छी केवल अपनी जात लगती है) 

    सच कहूँ
    मैं भाषा के नाम पर गालियों का भंडार हूँ
    इक जाति की कुंठा और दर्प की अभिव्यक्ति हूँ
    मुझमें छिपा है
    हज़ारों पीढ़ियों का अहंकार
    मैं मानुष नहीं संस्कारी भारत का संस्कार हूँ

    तीन

    दुआरे पर बैठे ललन शाह
    पिता से खैनी तो बाँटते हैं
    बेंच पर नहीं बैठते हैं बराबर
    निकट पड़ोसी हैं
    छोटी-सी परेशानी में भी आते हैं दौड़े
    मेरे संबोधनों में वह कभी न हुए चाचा
    वे कानू हैं
    छोटी है जाति उनकी 

    जहाँ उम्र में बहुत छोटे भी
    बाबा हो जाते हैं
    ललन शाह इतने बड़े कभी न हुए
    कि उन्हें बुलाया जाए चाचा, काका

    रमजितवा की माँ
    रात आधी आ गई थीं
    छोटकी चाची के प्रसव का दर्द सुनके
    छोटका भाई हुआ था पैदा उनके हाथ
    छोटका के लिए भी वो
    रमजितवा की माई ही रहीं आज तक 

    बिसनाथ कोइरी हैं
    उनके जैसा जवार में नहीं है कोई आलूदम बनाने वाला
    गाँव का कोई जग नहीं बीतता
    जिसमें उनके हाथ का स्वाद न हो
    बुलाए जाते हैं लेकिन
    नाम से ही पिता के द्वारा
    और बेटे से भी 

    वो जो धोबिन है
    जिसके लिए अभी भी
    शादियों में माँग ली जाती  है
    साड़ी वर-पक्ष या वधू-पक्ष से
    क्योंकि वो लड़ेगी
    वो जो कुम्हार हैं
    लोहार हैं
    या हजाम ठाकुर
    सब से रहा है नाता
    सबसे रही है नोक-झोंक
    सब आते हैं काम 
    सब ले जाते जजमानिका
    कभी नहीं होते पर
    आदरणीय पद नाम से संबोधित
    मेरे गाँव की सभ्यता की भाषा
    उनके लिए
    अबोला ताला लगा देती है हमारे मुँह पर
    वे हमेशा अपने नाम से किए जाते हैं याद
    या कुल या जाति नाम से
    जिसमें जी नहीं जुड़ता है
    जैसे हमारे में पाँड़े जी 

    हमारे उनके बीच का
    जजमानिका का भेद
    बस पंडीजिओं पर लागू नहीं होता
    वे जो जजमानी नहीं लेते
    उन पर भी लागू है पर
    हज़ारों पीढ़ियों से 

    बीत जाएँगी
    जाने और कितनी पीढ़ियाँ
    ललन शाह
    से ललन चाचा
    की यात्रा में
    वैसे तो तब तक गाँव हमारा स्वर्ग है

    स्रोत :
    • रचनाकार : ऋतेश कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए