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क्लियोपैट्रा

cleopatra

मनीषा कुलश्रेष्ठ

मनीषा कुलश्रेष्ठ

क्लियोपैट्रा

मनीषा कुलश्रेष्ठ

और अधिकमनीषा कुलश्रेष्ठ

    इतनी सुर्ख़ कि

    वे लाल की जगह काली दिखने लगें

    ऐसी अंजीरों की टोकरी में किसने छिपाया था

    अंजीरों-सा ही चमकीला मिश्री फणिनाग

    क्लियोपैट्रा, अपने पिता की आँख का नूर

    यही था तुम्हारे नाम का अर्थ

    तुम्हारी जिजीविषा इतनी कम थी

    तुम नहीं कर सकती थी आत्मघात

    अपने पहले और अंतिम प्रेम

    अलेक्जेंड्रिया के लिए रची थीं तुमने

    प्रेम की संधियाँ

    सीज़र के बाद मार्क एंटनी

    तो ऑक्टेवियो को बाँधना मोहपाश में

    तुम्हारे लिए क्या दुष्कर था?

    मगर

    रोम की आँख की किरकिरी थीं तुम

    इतिहास में अडिग

    स्वर्ण की धूल की आँधियों

    स्वर्ण के वरक़ों वाली किताबों का

    नगर था अलेक्जेंड्रिया

    कोई भी उसे पाना चाहता

    प्रेम करते हुए सीज़र को भी

    तुमने बहुत कुछ उपहार में दिया

    स्वर्ण और स्वर्णिम गुंबदों से अपने वक्ष

    मिश्री शाहकार, वह तनी नाक

    तराशे ऊँचे स्तंभों सी जाँघें

    टोलोमी साम्राज्य के विशुद्ध रक्त में

    तुमने मिला लिए रोमन बीज

    मिस्र के आज़ाद अस्तित्व के लिए

    अगर तुम करतीं आत्मघात

    तो करतीं विषधर का अंतिम गहरा चुंबन

    आह! दुरभिसंधि ऐसी कि

    काली लगने लगें ऐसी अंजीरों की टोकरी में

    हाथ डाल चुपचाप

    तुम नहीं मर सकती थीं तुम

    क्लियोपैट्रा!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा कुलश्रेष्ठ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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