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छिपकली

chhipkali

मिथिलेश श्रीवास्तव

और अधिकमिथिलेश श्रीवास्तव

    यह घर मेरा है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है

    लेकिन जिस बेख़ौफ़ से छिपकली दीवारों पर दौड़ती है

    यह घर उसका भी है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है

    लेकिन छिपकली जब बड़ी हो जाती है और अपने जबड़े खोलती है

    या अपनी पूँछ घुमाती है लगता है वह मुझे अपनी पूँछ में जकड़ कर

    मुझे निगल जाएगी

    मेरे डर को देखकर उसे ख़ुशी मिलती होगी

    मैं निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकता

    क्योंकि एक डरे हुए मनुष्य को देख कर एक छिपकली

    ख़ुश कैसे हो सकती है

    जबकि दोनों को एक ही साथ एक ही घर में रहना है

    यह भी तो कहा जा सकता है कि मेरी वजह से वह डरी हो

    और मेरे बारे में सोच रही हो कि उसे डरा देख कर मैं ख़ुश हो रहा हूँ

    हम दोनों या तो डरे हुए हैं या तो ख़ुश हैं

    मेरे मन में कई बार ख़याल आया कि उसे मार भगाऊँ

    फिर सोचा मेरा घर उसका देश है वह कहाँ जाएगी

    एक जाना-पहचाना देश छोड़ वह कौन से अनजाने मुल्क में जाएगी

    एक जगह से उजड़ा हुआ किसी दूसरी जगह बस कहाँ पाता है

    आजीवन उजड़े हुए एहसास के साथ रहता है

    करोड़ों-करोड़ पक्षी पशु कीड़े-मकोड़े और इंसान उजाड़ दिए जाने के बाद

    कैसे काटते होंगे अपना समय

    दर्दनाक है सोचना

    छिपकली को प्यार से देखने की कोशिश मुझे करनी चाहिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मिथिलेश श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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