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छद्म संन्यासी

chhadm sannyasi

एन.पी. सिंह

एन.पी. सिंह

छद्म संन्यासी

एन.पी. सिंह

और अधिकएन.पी. सिंह

    संन्यासी हूँ मैं!

    द्रष्टा हूँ अध्यात्म पथ का,

    जानता हूँ रहस्य ईश्वर का,

    संवाद है सीधा उस परमशक्ति से,

    मैं उस मार्ग को भी जानता हूँ,

    और साधन को भी जानता हूँ,

    तुम्हारी पहुँच कर सकता है स्थापित

    रहस्यमय देवलोक से।

    तुम्हारे अतीत के पापों के

    शमन की विद्या हूँ मैं!

    और बीमा हूँ

    तुम्हारी भावी दुश्चिंताओं का।

    नहीं कर सकता तुम्हारी

    दरिद्रता का निवारण,

    पर दे सकता हूँ

    मृत्यु-पश्चात् अदृश्य लोक में

    समृद्धि एवं अप्सराओं का सुख।

    मैं भोगता हूँ अपनी सहज इंद्रियाँ

    सिखाते हुए तुम्हें सतत

    साम, दाम, तप, वैराग्य का पाठ।

    मत पूछना अपनी पीड़ाओं,

    नैराश्य का उपचार,

    वह भोगना है तुम्हें

    पूर्व जन्मों की वासनाओं के

    क्षय के निमित्त।

    मत समझना अपनी दरिद्रता को

    व्यवस्था-जनित सड़ाँध की दुर्गंध,

    इसके मल में हो

    सिर्फ़ ‘तुम’ और तुम्हारा ‘विकर्म’।

    हाँ, परलोक में चाहते हो सुखों की वर्षा

    तो देना होगा निरंतर चढ़ावा,

    अपनी सीमित आय का वृहद् अंश,

    जिसमें बन सके

    हम वैरागियों का प्रसाद,

    जिसके एक कोने में रहेंगे तुम्हारे आराध्य भी।

    स्वर्ग का प्रतिनिधि हूँ मैं,

    मोक्ष मार्ग का ठेकेदार,

    तुम्हें चुकाना ही होगा पथकर,

    सुदृढ़ रखने को मेरे व्यवसाय की निरंतरता।

    मैं तत्त्वदर्शी हूँ, पर साझा नहीं करूँगा सत्य,

    वरना तुम धनुर्धारी पार्थ की तरह

    ले लोगे व्रत ‘अन्याय’ के प्रतिकार का।

    नहीं दूँगा उपदेश

    उपनिषदों, वेदांत, गीता एवं क़ुरान का,

    अन्यथा तुम खोज लोगे

    स्वयं के भीतर ‘परमतत्त्व’

    आत्मानुभव पर आधृत।

    यदि तुमने जला दिया वासनाओं का रावण,

    और बसा लिया हृदय में राम-ख़ुदा के

    शाश्वत मूल्यों का समुच्चय,

    फिर क्या होगा मेरी सौदागीरी का?

    बिचौलिए की निविध्न सत्ता का?

    रहस्मय मोह की भूलभूलैया का?

    जिसमें उलझाकर राज करता हूँ

    मैं तुम पर।

    सात्त्विकता का ढोंग कर

    तामसिकता को पाथेय बना

    कैसे भोग सकूँगा मैं

    पृथ्वी के राजसी ऐश्वर्य को?

    कैसे आवृत्त कर सकूँगा व्यभिचारों को

    संन्यस्थ वस्त्र-विन्यास से?

    मेरा स्पर्श मात्र

    तुम्हारे विवादों की औषधि है,

    मैं नहीं जानता स्वयं को,

    पर दे सकता हूँ

    संपूर्ण ‘ब्रह्मांडीय’ ज्ञान पर सार।

    समस्त तत्त्वज्ञान मुझमें समाहित हैं,

    सभी दर्शनों का निष्कर्ष हूँ मैं!

    तुम हो जाओ अनसूया,

    क्योंकि मैं हूँ मार्ग,

    और एकमात्र नाविक।

    भूल जाओ ‘आत्मदीप’ का संकल्प

    मैं ही सूर्य हूँ तुम्हारा,

    जला दूँगा तुम्हारी अविद्या

    ज्ञानाग्नि की दग्धता से।

    मैं करता रहूँगा गूढ़ रचना ईश्वर की,

    नित नवीन परिभाषाएँ गढ़ता रहूँगा,

    बुनता रहूँगा रहस्यों को रेशमी जाल

    कि तुम सदैव तलाशो मेरा आश्रय

    ‘स्वयं’ तक की यात्रा के लिए भी।

    मैं नहीं समझने दूँगा

    अध्यात्म की ‘आत्मा’,

    ओझल रखूँगा ‘ईश’ को गहरे कुहासे में,

    उद्विग्न रखूँगा तुम्हें, अतृप्त भी

    छलावापूर्ण प्रवचनों से, अर्थहीन कर्मकांडों से।

    माया से दूर रहने की सलाह

    देने वाला कुटिल मायावी हूँ मैं!

    ‘त्याग’ के दर्शन का प्रवंचक,

    परम भोगी हूँ मैं!

    तुम्हारे द्वंद्वों के समाधान को,

    उलझावों को नित उर्वरक देता

    तुम्हारे कर्मों के पोषक रसों का रागी हूँ मैं!

    छोड़ो प्राणिमात्र के कल्याण का स्वप्न

    मैं हूँ तुम्हारे समस्त कर्मों का केंद्र,

    समर्पण करो, समस्त अर्पण करो मुझे

    तुम्हारा पूज्य-पाथेय,

    आधुनिक संन्यासी हूँ मैं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द! कुछ कहे-अनकहे से... (पृष्ठ 116)
    • रचनाकार : एन.पी. सिंह
    • प्रकाशन : प्रभात प्रकाशन
    • संस्करण : 2019

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