चाँदी के तार
chandi ke tar
वह रोज़
एक पुराने संदूक़ से
नए और तह किए कपड़े निकालती
थोड़ी देर उसे हाथ से सहलाने के बाद
वह सोचती कि इसे उस दिन पहनेगी
फिर उसी संदूक़ में आहिस्ता से
उन कपड़ों को तहाकर रख देती
जब होती कहीं आस-पड़ोस में शादी
उसको चढ़ आता बुख़ार
और भयंकर दर्द से
उसकी देह ऐंठने लगती
वह सोने से पहले
हर रात देखती एक सजा घोड़ा
जो आकाश से उतरता था
और उसे बहुत दूर ले जाता था
एक दिन
उसने दर्पण में देखे
अपने सिर में कई चाँदी के तार
उस रात घोड़ों की टापों ने
उसे रौंद डाला
- पुस्तक : ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : विनोद दास
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1986
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