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चलना

chalna

चलता रहा कछुआ चाल

अपनी मौज में

आस-पास ख़ूब उछालें भरते रहे ख़रगोश

आँधियाँ आईं तो डरपा जी

लेकिन थाम ली वह छरहरी शाख

जिस पर टिका हुआ था घोंसला

अपनी पूरी ताक़त से

पानी बरसा तो तान लिया

हथेलियों का चंदोवा

नम होती रही भाग्यरेख

पर छूटी नहीं आस की पतली डोर

शबो-रोज़ के इस तमाशे में

पास बैठे बतियाते रहे ग़ालिब

हम चलते रहे थोड़ी दूर तक

हर इक तेज़-रौ के साथ

लेकिन हर बार होती रही राहजन की पहचान!

स्रोत :
  • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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