बस बची रहूँगी मैं
bus bachi rahungi main
एक दिन जब मैं चली जाऊँगी
तो घर के किन्हीं कोनों से निकलूँगी फ़ालतू सामान में
बहुत समय से बंद पड़ी दराज़ों से
निकलूँगी किसी डायरी में लिखे हिसाब से
मेरे किसी पहने हुए कपड़े में अटकी पड़ी रहेगी मेरी ख़ुशबू
जिसे मेरे बच्चे पहन कर सो जाएँगे
जब मुझे पास बुलाना चाहेंगे
मैं उनके सपनों में आऊँगी
उन्हें सहलाने और उनक प्रश्नों का उत्तर देने
मैं बची रहूँगी शायद कुछ घटनाओं में
लोगों की स्मृतियों में उनके जीवित रहने तक
गाय की जुगाली में गिरती रहूँगी मैं
जब वह उन रोटियों को हज़म कर रही होगी
जो उसने मेरे हाथ से खाई थी
बहुत दिन तक
उन आवारा कुत्तों की उदासी में गुम पड़ी रहूँगी मैं
और मेरी सीढ़ी पर पसरे सन्नाटे में वे खोजेंगे मेरी उपस्थिति
मैं मिलूँगी
सड़क के अस्फुट स्पर्शों के ख़ज़ाने में
जब वह अपनी आहटों को जमा करने के लिए
खोलेगी अपनी तिजोरी
पेड़ की उन जड़ों में जिन्हें मैंने सींचा था
उसके किसी रेशे की मुलायम याद में
पड़ी मिलूँगी मैं एक लंबे अरसे तक
किसी बच्चे की मुस्कुराहट में बजूँगी मंदिर की घंटी जैसी
बस बची रहूँगी मैं प्रेम में
जो मैंने बाँटा था अपने होने से...
दिया था इस सृष्टि को
तब ये सृष्टि देगी मुझे
मेरे चुक जाने के बाद बचाए रखेगी मुझे।
- पुस्तक : मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान (पृष्ठ 27)
- रचनाकार : लीना मल्होत्रा राव
- प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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