अति असह्य अज्ञात वास जब
पूरा होने पर आया,
वीर पांडवों ने तब मन में
एक अलौकिक सुख पाया।
उन्हीं दिनों पाकर सहायता
कुरुपति, द्रोण, कर्ण, कृप की,
हरी सुशर्मा ने बहु गायें
चिर वैरी विराट नृप की॥
मत्स्यराज पर विपद देख कर
निज कर्तव्य सोच मन में,
करने को सहायता उनकी
गए युधिष्ठिर भी रण में।
सज्जन निज उपकारों का ज्यों
बदला कभी न लेते हैं,
प्रत्युपकार रूप ऋण त्यों ही
प्राणों से भी देते हैं॥
गए भीम, सहदेव, नकुल भी
करके अस्त्र-शस्त्र धारण,
पर अर्जुन से कहा न नृप ने
नर्तक होने के कारण।
इससे उनकी हुई विकलता
हुआ हृदय में दु:ख अपार,
प्राय: वेश देख कर ही सब
करते हैं योग्यता-विचार॥
उत्तर कुरु के जिस विजयी को
सब जगदेक वीर कहते,
अबला बना हुआ बैठा है
वही आज बल के रहते!
हाय! प्रकट होने पर हमको
लोक कौन पदवी देगा?
वह भीषण अपयश निश्चय ही
प्राण हमारे हर लेगा॥
हाय! हाय! धिक्कार हमें है
छिपे हुए बैठे हैं हम,
आश्रय-दाता नृप विराट पर
विपद पड़ी है दारुणतम।
इच्छा और शक्ति रहते भी
हम कर्तव्य न कर सकते
हाय न तो जी ही सकते हैं
न हम आज हैं मर सकते॥
कृष्णा का अपमान सभा में
और विपिन की बाधा घोर,
रहे झेलते किसी भाँति हम
करके अपना हृदय कठोर।
अहो! दैव क्या इतने पर भी
तुझको दया नहीं आई?
नरक रूप अज्ञात वास में
महा असुविधा प्रकटाई!
आर्य भीम, सहदेव, नकुल युत
धर्मराज को लेकर संग,
मत्स्यराज सानंद गए हैं
करने को रिपु से रण-रंग।
होने से विपरीत वेश हा!
हुआ हमारा ही न प्रबंध,
भला वीरता के कामों से
नाट्यकला का क्या संबंध?
अच्छा क्यों न आप ही अब हम
चले जाएँ युद्धस्थल में,
किंतु देखकर वैरी हमको
जान न लेंगे क्या पल में?
पूर्ण हुआ अज्ञात वास जब
फिर डर ही क्या है इसका?
चाहे जो हो किंतु जगत में
अर्जुन को डर है किसका?
समय कहाँ पावेंगे फिर हम
प्रकटित होने का ऐसा?
मिलता नहीं सुयोग सर्वदा
जग में जैसे को तैसा।
अब तो नहीं रहा जाता है
फिर क्यों यह अवसर खोवें?
कुछ भी हो, अर्जुन के वैरी
अब चिर निद्रा में सोवें॥
निश्चय करते हुए इसी विध
जाने को सत्वर रण में,
अस्थिर अर्जुन घूम रहे थे
नाट्य-भवन के प्रांगण में।
उसी समय पुत्री विराट की
थी जिसकी सूरत भोली,
आकर उनके निकट उत्तरा
उनसे इस प्रकार बोली—
“बृहन्नले! इस समय राज्य पर
कठिन समय जो आया है,
नीच त्रिगर्तराज ने आकर
जो उत्पात मचाया है।
उसके साथ युद्ध करने को
जिस प्रकार हैं पिता गए,
अब उससे भी अधिक
उपद्रव सुने गए हैं नए-नए!
अधम शिरोमणि दुर्योधन ने
इसी समय में पहुँच यहाँ,
करके हरण बहुत-सी गायें
घेरी नगरी जहाँ-तहाँ!
भैया उत्तर ही घर पर हैं
गए युद्ध में वीर सभी,
फिर भी, बालक होकर भी, वे
प्रस्तुत हैं युद्धार्थ अभी॥
कुछ दिन हुए अचानक उनका
मारा गया सारथी विज्ञ,
सैरंध्री कहती है तू भी
है इस गुण में पूर्ण अभिज्ञ।
कई बार अर्जुन का तूने
है समुचित सारथ्य किया,
देकर निज कौशल का परिचय
उनको अत्यानंद दिया॥
क्या भैया की भी सहायता
कर सकता है तू इस काल?
आशा है, यह बात मानकर
कर देगा तू मुझे निहाल।
तुझको अपना ही विचारकर
इस प्रकार कहती हूँ मैं,
तुझे ज्ञात है तुझसे जैसी
तुष्ट सदा रहती हूँ मैं॥”
सुनकर वचन उत्तरा के यों
सुखी हुए मन में अति पार्थ,
फिर क्या कहना अनायास ही
जो मनमाना मिले पदार्थ।
किंतु हर्ष को प्रकट न करके
बोले वे कुछ सकुचाते,
धीरों के गंभीर हृदय के
भाव नहीं ऊपर आते॥
“भला नाचने-गाने वाले
क्या जानें ऐसी बातें?
करनी पड़ती हैं कितनी ही
ऐसे समय नई घातें।
पर जब और उपाय नहीं है
यह आज्ञा पालेंगे हम,
प्रेम-भरा अनुरोध तुम्हारा
किस प्रकार टालेंगे हम?”
नववल्ली-सी खिली उत्तरा
फैली मुख पर छटा नई,
प्रकृत मंद गति को तज कर वह
झट उत्तर के निकट गई।
आख़िरकार युद्ध करने को
राजकुमार हुआ तैयार,
मानो मन्मथ ने धरणी पर
धारण किया नया अवतार॥
तब कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से
सैरंध्री की ओर निहार,
बृहन्नला भी प्रस्तुत होकर
पाने लगा प्रमोद अपार।
देख उसे विपरीत ढंग से
कवच पहनते हुए विशाल,
हँसती हुई उत्तरा उससे
बोली ऐसे वचन रसाल—
“बृहन्नले! रण में जाकर तू
मुझको नहीं भूल जाना,
कुटिल कौरवों को परास्त कर
उनके वस्त्र छीन लाना।
उनसे रंग-बिरंगी गुड़ियाँ
मैं सानंद बनाऊँगी
और खेलती हुई उन्हीं से
मैं तेरा गुण गाऊँगी॥
सुन कर उसके वचन पार्थ यों
उसे देख कुछ मुसकाए,
उत्तर दिए बिना ही फिर वे
स्यंदन शीघ्र सजा लाए।
कहते नहीं श्रेष्ठ जन पहले
करके ही दिखलाते हैं,
कार्य सिद्ध करने से पहले
बातें नहीं बनाते हैं॥
रथारूढ़ होकर फिर दोनों
समर भूमि को चले सहर्ष,
चकित हुआ मन में तब उत्तर
देख पार्थ-पाटव-उत्कर्ष।
पुर से निकल शीघ्र पहुँचे वे
उसी शमी पादप के पास,
शस्त्र छिपा रक्खे थे जिस पर
पांडु-सुतों ने बिना प्रयास॥
इंद्रधनुष-सम विविध वर्णमय
वीरों के वस्त्रों वाली,
चपल चंचला के प्रकाश-सम
चमकीले शस्त्रों वाली।
पवन-वेग मय वाहनवाली
गर्जन करती हुई, बड़ी,
उसी जगह से घनमाला-सी
कौरव सेना दीख पड़ी॥
सूर्योदय होने पर दीपक
हो जाता निष्प्रभ जैसे,
उसे देखकर उत्तर का मुख
शोभा-हीन हुआ तैसे।
क्षण भर में ही उसका पहला
साहस सारा लुप्त हुआ,
जगा हुआ उत्साह भीति को
जागृत करके सुप्त हुआ॥
बोला तब भय से कातर वह
शक्ति भूल अपनी सारी—
“देखो, देखो, बृहन्नले! यह
सेना है कैसी भारी!
इसे देखकर धैर्य छूटता
अंग आप ही हैं थकते,
मैं क्या, इसे स्वयं सुर-गण भी
रण में नहीं हरा सकते॥
मैं किस भाँति लड़ूँगा इससे,
लौटाओ रथ-अश्व अभी,
सैन्य-सहित जब पिता आएँगे
होगा बस अब युद्ध तभी।
बिंदु और सागर की समता
हो सकती है भला कहीं!
गुरुतम गिरि से गज-शावक को
टक्कर लेना योग्य नहीं॥”
देख उसे भयभीत धनंजय
बोले यों उससे स्वच्छंद—
“यह क्या, राजकुमार! अभी से
पड़ते हो तुम कैसे मंद?
वीर पिता के पुत्र अहो! तुम
इस प्रकार करते आक्रंद,
सावधान! चंचल होकर यों
मत देना अरि को आनंद॥
भला अभी तक शत्रु जनों ने
है ऐसा क्या कार्य किया—
जिसने तुमसे वीर पुत्र का
हृदय अचानक कँपा दिया?
किसी कार्य को देख प्रथम ही
शंकित होना ठीक नहीं,
यश विशेषता से ही मिलता
है यह बात अलीक नहीं॥
स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोक में
दुराचार जो करते हैं,
दुराचार ही के कारण वे
दुर्बल होकर मरते हैं।
दुर्योधन-दु:शासनादि हैं
महा दुराचारी धिक्-पात्र,
आओ उनका वध करने में
बन जावें हम कारण-मात्र॥
जैसा निश्चय कर आए हो
अब वैसा ही काम करो,
धैर्य धरो, मत डरो विघ्न से
आगे बढ़कर नाम किरो।
जो कुछ गर्व जना आए हो
देखो, वह खो जाए नहीं,
करो भूल कर काम न ऐसा
सिर नीचा हो जाए कहीं॥”
इस प्रकार अर्जुन ने बहु विध
दिया उसे उत्साह बड़ा,
पर भय के कारण उसका कुछ
उस पर नहीं प्रभाव पड़ा।
बोला वह—“चाहे जो हो पर
इससे लड़ न सकूँगा मैं,
बृहन्नले! रथ को लौटा दे
तुझे बहुत धन दूँगा मैं॥”
अर्जुन को यों उत्तर दे कर
उत्तर रथ से उतर भगा!
तब वे उसे पकड़ने दौड़े
मन में कुछ-कुछ क्रोध जगा।
तत्क्षण दुर्योधन के दल में
अट्टहास यों भास हुआ—
चंचल करता हुआ जलधि को
मानों इंदु-विकास हुआ॥
“क्षत्रिय होकर रण से डरते
है तुमको धिक्कार अरे!”
यों कह धावित हुए पार्थ जब
उड़े केश-पट पवन भरे।
कच-कलाप जा पकड़ा उसका
स्वच्छ पाट का-सा लच्छा,
“ऐसे जीने के बदले तो
है मर जाना ही अच्छा॥
अहो! तुच्छ जीवन पर तुमको
है इतनी ममता मन में,
हँसते-हँसते मर जाते हैं
धीर धर्म के साधन में।
क्षत्रिय होकर पीठ दिखाते
निश्चय ही यह है दुर्दैव,
क्या कर्तव्य-विमुख होकर भी
जो सकते हो, कहो, सदैव?
ऐसा हाल अभी से है जब
तब आगे कैसा होगा?
वृद्धकाल क्या कभी किसी का
युवाकाल जैसा होगा?
कीर्तिमान जन मरा हुआ भी
अमर हुआ जग में जीता,
मरे हुए से भी जीते जी
है अपगीत गया बीता॥
डरो नहीं तुम युद्ध न करना
सबसे स्वयं लड़ूँगा मैं,
बनो सारथी ही तुम मेरे
आँच न आने दूँगा मैं।
होता अहो! सुभद्रानंदन
यदि अभिमन्यु आज इस काल,
तो यह अभी जान लेते तुम—
कितना साहस रखते बाल॥”
यों कह कर अर्जुन ने अपना
पूरा परिचय दिया उसे,
चकित, विनीत और फिर निर्भय
इस प्रकार से किया उसे।
उसी शमी पादप के नीचे
फिर वे उसको ले आए,
और दिखाकर अपने आयुध
उसके द्वारा उतराए॥
वेश बदलने लगे पार्थ तब
कौरव भ्रमित हुए भ्रम से,
धूलि-धूसरित रत्न शाण पर
लगा चमकने क्रम क्रम से!
दुर्योधन की सब आशाएँ
मिट्टी में मिल गई वहीं,
होता है परिणाम कहीं भी
बुरे काम का भला नहीं॥
ati asahy agyat was jab
pura hone par aaya,
weer panDwon ne tab man mein
ek alaukik sukh paya
unhin dinon pakar sahayata
kurupati, dron, karn, krip ki,
hari susharma ne bahu gayen
chir wairi wirat nrip kee॥
matsyraj par wipad dekh kar
nij kartawya soch man mein,
karne ko sahayata unki
gaye yudhishthir bhi ran mein
sajjan nij upkaron ka jyon
badla kabhi na lete hain,
pratyupkar roop rn tyon hi
pranon se bhi dete hain॥
gaye bheem, sahdew, nakul bhi
karke astra shastr dharan,
par arjun se kaha na nrip ne
nartak hone ke karan
isse unki hui wikalta
hua hirdai mein duhakh apar,
prayah wesh dekh kar hi sab
karte hain yogyata wichar॥
uttar kuru ke jis wijyi ko
sab jagdek weer kahte,
abla bana hua baitha hai
wahi aaj bal ke rahte!
hay! prakat hone par hamko
lok kaun padwi dega?
wo bhishan apyash nishchay hi
paran hamare har lega॥
hay! hay! dhikkar hamein hai
chhipe hue baithe hain hum,
ashray data nrip wirat par
wipad paDi hai daruntam
ichha aur shakti rahte bhi
hum kartawya na kar sakte
hay na to ji hi sakte hain
na hum aaj hain mar sakte॥
kirishna ka apman sabha mein
aur wipin ki badha ghor,
rahe jhelte kisi bhanti hum
karke apna hirdai kathor
aho! daiw kya itne par bhi
tujhko daya nahin i?
narak roop agyat was mein
maha asuwidha praktai!
ary bheem, sahdew, nakul yut
dharmaraj ko lekar sang,
matsyraj sanand gaye hain
karne ko ripu se ran rang
hone se wiprit wesh ha!
hua hamara hi na prbandh,
bhala wirata ke kamon se
natyakla ka kya sambandh?
achchha kyon na aap hi ab hum
chale jayen yuddhasthal mein,
kintu dekhkar wairi hamko
jaan na lenge kya pal mein?
poorn hua agyat was jab
phir Dar hi kya hai iska?
chahe jo ho kintu jagat mein
arjun ko Dar hai kiska?
samay kahan pawenge phir hum
praktit hone ka aisa?
milta nahin suyog sarwada
jag mein jaise ko taisa
ab to nahin raha jata hai
phir kyon ye awsar khowen?
kuch bhi ho, arjun ke wairi
ab chir nidra mein sowen॥
nishchay karte hue isi widh
jane ko satwar ran mein,
asthir arjun ghoom rahe the
naty bhawan ke prangan mein
usi samay putri wirat ki
thi jiski surat bholi,
akar unke nikat uttara
unse is prakar boli—
“brihannle! is samay rajy par
kathin samay jo aaya hai,
neech trigartraj ne aakar
jo utpat machaya hai
uske sath yudh karne ko
jis prakar hain pita gaye,
ab usse bhi adhik
upadraw sune gaye hain nae nae!
adham shiromanai duryodhan ne
isi samay mein pahunch yahan,
karke harn bahut si gayen
gheri nagri jahan tahan!
bhaiya uttar hi ghar par hain
gaye yudh mein weer sabhi,
phir bhi, balak hokar bhi, we
prastut hain yuddharth abhi॥
kuch din hue achanak unka
mara gaya sarthi wigya,
sairandhri kahti hai tu bhi
hai is gun mein poorn abhigya
kai bar arjun ka tune
hai samuchit sarathy kiya,
dekar nij kaushal ka parichai
unko atyanand diya॥
kya bhaiya ki bhi sahayata
kar sakta hai tu is kal?
asha hai, ye baat mankar
kar dega tu mujhe nihal
tujhko apna hi wicharkar
is prakar kahti hoon main,
tujhe gyat hai tujhse jaisi
tusht sada rahti hoon main॥”
sunkar wachan uttara ke yon
sukhi hue man mein ati parth,
phir kya kahna anayas hi
jo manmana mile padarth
kintu harsh ko prakat na karke
bole we kuch sakuchate,
dhiron ke gambhir hirdai ke
bhaw nahin upar aate॥
“bhala nachne gane wale
kya janen aisi baten?
karni paDti hain kitni hi
aise samay nai ghaten
par jab aur upay nahin hai
ye aagya palenge hum,
prem bhara anurodh tumhara
kis prakar talenge ham?”
nawwalli si khili uttara
phaili mukh par chhata nai,
prakrt mand gati ko taj kar wo
jhat uttar ke nikat gai
akhiraka yudh karne ko
rajakumar hua taiyar,
mano manmath ne dharnai par
dharan kiya naya autar॥
tab kritagyta poorn drishti se
sairandhri ki or nihar,
brihannla bhi prastut hokar
pane laga pramod apar
dekh use wiprit Dhang se
kawach pahante hue wishal,
hansti hui uttara usse
boli aise wachan rasal—
“brihannle! ran mein jakar tu
mujhko nahin bhool jana,
kutil kaurwon ko parast kar
unke wastra chheen lana
unse rang birangi guDiyan
main sanand banaungi
aur khelti hui unhin se
main tera gun gaungi॥
sun kar uske wachan parth yon
use dekh kuch muskaye,
uttar diye bina hi phir we
syandan sheeghr saja laye
kahte nahin shreshth jan pahle
karke hi dikhlate hain,
kary siddh karne se pahle
baten nahin banate hain॥
ratharuDh hokar phir donon
samar bhumi ko chale saharsh,
chakit hua man mein tab uttar
dekh parth pataw utkarsh
pur se nikal sheeghr pahunche we
usi shami padap ke pas,
shastr chhipa rakkhe the jis par
panDu suton ne bina prayas॥
indradhnush sam wiwidh warnmay
wiron ke wastron wali,
chapal chanchala ke parkash sam
chamkile shastron wali
pawan weg mai wahanwali
garjan karti hui, baDi,
usi jagah se ghanmala si
kauraw sena deekh paDi॥
suryoday hone par dipak
ho jata nishprabh jaise,
use dekhkar uttar ka mukh
shobha heen hua taise
kshan bhar mein hi uska pahla
sahas sara lupt hua,
jaga hua utsah bhiti ko
jagrit karke supt hua॥
bola tab bhay se katar wo
shakti bhool apni sari—
“dekho, dekho, brihannle! ye
sena hai kaisi bhari!
ise dekhkar dhairya chhutta
ang aap hi hain thakte,
main kya, ise swayan sur gan bhi
ran mein nahin hara sakte॥
main kis bhanti laDunga isse,
lautao rath ashw abhi,
sainy sahit jab pita ayenge
hoga bus ab yudh tabhi
bindu aur sagar ki samta
ho sakti hai bhala kahin!
gurutam giri se gaj shawak ko
takkar lena yogya nahin॥”
dekh use bhaybhit dhananjay
bole yon usse swachchhand—
“yah kya, rajakumar! abhi se
paDte ho tum kaise mand?
weer pita ke putr aho! tum
is prakar karte akrand,
sawdhan! chanchal hokar yon
mat dena ari ko anand॥
bhala abhi tak shatru janon ne
hai aisa kya kary kiya—
jisne tumse weer putr ka
hirdai achanak kanpa diya?
kisi kary ko dekh pratham hi
shankit hona theek nahin,
yash wisheshata se hi milta
hai ye baat alik nahin॥
swarth siddhi ke liye lok mein
durachar jo karte hain,
durachar hi ke karan we
durbal hokar marte hain
duryodhan duhshasnadi hain
maha durachari dhik patr,
ao unka wadh karne mein
ban jawen hum karan matr॥
jaisa nishchay kar aaye ho
ab waisa hi kaam karo,
dhairya dharo, mat Daro wighn se
age baDhkar nam kiro
jo kuch garw jana aaye ho
dekho, wo kho jaye nahin,
karo bhool kar kaam na aisa
sir nicha ho jaye kahin॥”
is prakar arjun ne bahu widh
diya use utsah baDa,
par bhay ke karan uska kuch
us par nahin prabhaw paDa
bola wah—“chahe jo ho par
isse laD na sakunga main,
brihannle! rath ko lauta de
tujhe bahut dhan dunga main॥”
arjun ko yon uttar de kar
uttar rath se utar bhaga!
tab we use pakaDne dauDe
man mein kuch kuch krodh jaga
tatkshan duryodhan ke dal mein
attahas yon bhas hua—
chanchal karta hua jaldhi ko
manon indu wikas hua॥
“kshatriy hokar ran se Darte
hai tumko dhikkar are!”
yon kah dhawit hue parth jab
uDe kesh pat pawan bhare
kach kalap ja pakDa uska
swachchh pat ka sa lachchha,
“aise jine ke badle to
hai mar jana hi achchha॥
aho! tuchchh jiwan par tumko
hai itni mamta man mein,
hanste hanste mar jate hain
dheer dharm ke sadhan mein
kshatriy hokar peeth dikhate
nishchay hi ye hai durdaiw,
kya kartawya wimukh hokar bhi
jo sakte ho, kaho, sadaiw?
aisa haal abhi se hai jab
tab aage kaisa hoga?
wriddhkal kya kabhi kisi ka
yuwakal jaisa hoga?
kirtiman jan mara hua bhi
amar hua jag mein jita,
mare hue se bhi jite ji
hai apgit gaya bita॥
Daro nahin tum yudh na karna
sabse swayan laDunga main,
bano sarthi hi tum mere
anch na aane dunga main
hota aho! subhadranandan
yadi abhimanyu aaj is kal,
to ye abhi jaan lete tum—
kitna sahas rakhte baal॥”
yon kah kar arjun ne apna
pura parichai diya use,
chakit, winit aur phir nirbhay
is prakar se kiya use
usi shami padap ke niche
phir we usko le aaye,
aur dikhakar apne ayudh
uske dwara utraye॥
wesh badalne lage parth tab
kauraw bhramit hue bhram se,
dhuli dhusarit ratn shan par
laga chamakne kram kram se!
duryodhan ki sab ashayen
mitti mein mil gai wahin,
hota hai parinam kahin bhi
bure kaam ka bhala nahin॥
ati asahy agyat was jab
pura hone par aaya,
weer panDwon ne tab man mein
ek alaukik sukh paya
unhin dinon pakar sahayata
kurupati, dron, karn, krip ki,
hari susharma ne bahu gayen
chir wairi wirat nrip kee॥
matsyraj par wipad dekh kar
nij kartawya soch man mein,
karne ko sahayata unki
gaye yudhishthir bhi ran mein
sajjan nij upkaron ka jyon
badla kabhi na lete hain,
pratyupkar roop rn tyon hi
pranon se bhi dete hain॥
gaye bheem, sahdew, nakul bhi
karke astra shastr dharan,
par arjun se kaha na nrip ne
nartak hone ke karan
isse unki hui wikalta
hua hirdai mein duhakh apar,
prayah wesh dekh kar hi sab
karte hain yogyata wichar॥
uttar kuru ke jis wijyi ko
sab jagdek weer kahte,
abla bana hua baitha hai
wahi aaj bal ke rahte!
hay! prakat hone par hamko
lok kaun padwi dega?
wo bhishan apyash nishchay hi
paran hamare har lega॥
hay! hay! dhikkar hamein hai
chhipe hue baithe hain hum,
ashray data nrip wirat par
wipad paDi hai daruntam
ichha aur shakti rahte bhi
hum kartawya na kar sakte
hay na to ji hi sakte hain
na hum aaj hain mar sakte॥
kirishna ka apman sabha mein
aur wipin ki badha ghor,
rahe jhelte kisi bhanti hum
karke apna hirdai kathor
aho! daiw kya itne par bhi
tujhko daya nahin i?
narak roop agyat was mein
maha asuwidha praktai!
ary bheem, sahdew, nakul yut
dharmaraj ko lekar sang,
matsyraj sanand gaye hain
karne ko ripu se ran rang
hone se wiprit wesh ha!
hua hamara hi na prbandh,
bhala wirata ke kamon se
natyakla ka kya sambandh?
achchha kyon na aap hi ab hum
chale jayen yuddhasthal mein,
kintu dekhkar wairi hamko
jaan na lenge kya pal mein?
poorn hua agyat was jab
phir Dar hi kya hai iska?
chahe jo ho kintu jagat mein
arjun ko Dar hai kiska?
samay kahan pawenge phir hum
praktit hone ka aisa?
milta nahin suyog sarwada
jag mein jaise ko taisa
ab to nahin raha jata hai
phir kyon ye awsar khowen?
kuch bhi ho, arjun ke wairi
ab chir nidra mein sowen॥
nishchay karte hue isi widh
jane ko satwar ran mein,
asthir arjun ghoom rahe the
naty bhawan ke prangan mein
usi samay putri wirat ki
thi jiski surat bholi,
akar unke nikat uttara
unse is prakar boli—
“brihannle! is samay rajy par
kathin samay jo aaya hai,
neech trigartraj ne aakar
jo utpat machaya hai
uske sath yudh karne ko
jis prakar hain pita gaye,
ab usse bhi adhik
upadraw sune gaye hain nae nae!
adham shiromanai duryodhan ne
isi samay mein pahunch yahan,
karke harn bahut si gayen
gheri nagri jahan tahan!
bhaiya uttar hi ghar par hain
gaye yudh mein weer sabhi,
phir bhi, balak hokar bhi, we
prastut hain yuddharth abhi॥
kuch din hue achanak unka
mara gaya sarthi wigya,
sairandhri kahti hai tu bhi
hai is gun mein poorn abhigya
kai bar arjun ka tune
hai samuchit sarathy kiya,
dekar nij kaushal ka parichai
unko atyanand diya॥
kya bhaiya ki bhi sahayata
kar sakta hai tu is kal?
asha hai, ye baat mankar
kar dega tu mujhe nihal
tujhko apna hi wicharkar
is prakar kahti hoon main,
tujhe gyat hai tujhse jaisi
tusht sada rahti hoon main॥”
sunkar wachan uttara ke yon
sukhi hue man mein ati parth,
phir kya kahna anayas hi
jo manmana mile padarth
kintu harsh ko prakat na karke
bole we kuch sakuchate,
dhiron ke gambhir hirdai ke
bhaw nahin upar aate॥
“bhala nachne gane wale
kya janen aisi baten?
karni paDti hain kitni hi
aise samay nai ghaten
par jab aur upay nahin hai
ye aagya palenge hum,
prem bhara anurodh tumhara
kis prakar talenge ham?”
nawwalli si khili uttara
phaili mukh par chhata nai,
prakrt mand gati ko taj kar wo
jhat uttar ke nikat gai
akhiraka yudh karne ko
rajakumar hua taiyar,
mano manmath ne dharnai par
dharan kiya naya autar॥
tab kritagyta poorn drishti se
sairandhri ki or nihar,
brihannla bhi prastut hokar
pane laga pramod apar
dekh use wiprit Dhang se
kawach pahante hue wishal,
hansti hui uttara usse
boli aise wachan rasal—
“brihannle! ran mein jakar tu
mujhko nahin bhool jana,
kutil kaurwon ko parast kar
unke wastra chheen lana
unse rang birangi guDiyan
main sanand banaungi
aur khelti hui unhin se
main tera gun gaungi॥
sun kar uske wachan parth yon
use dekh kuch muskaye,
uttar diye bina hi phir we
syandan sheeghr saja laye
kahte nahin shreshth jan pahle
karke hi dikhlate hain,
kary siddh karne se pahle
baten nahin banate hain॥
ratharuDh hokar phir donon
samar bhumi ko chale saharsh,
chakit hua man mein tab uttar
dekh parth pataw utkarsh
pur se nikal sheeghr pahunche we
usi shami padap ke pas,
shastr chhipa rakkhe the jis par
panDu suton ne bina prayas॥
indradhnush sam wiwidh warnmay
wiron ke wastron wali,
chapal chanchala ke parkash sam
chamkile shastron wali
pawan weg mai wahanwali
garjan karti hui, baDi,
usi jagah se ghanmala si
kauraw sena deekh paDi॥
suryoday hone par dipak
ho jata nishprabh jaise,
use dekhkar uttar ka mukh
shobha heen hua taise
kshan bhar mein hi uska pahla
sahas sara lupt hua,
jaga hua utsah bhiti ko
jagrit karke supt hua॥
bola tab bhay se katar wo
shakti bhool apni sari—
“dekho, dekho, brihannle! ye
sena hai kaisi bhari!
ise dekhkar dhairya chhutta
ang aap hi hain thakte,
main kya, ise swayan sur gan bhi
ran mein nahin hara sakte॥
main kis bhanti laDunga isse,
lautao rath ashw abhi,
sainy sahit jab pita ayenge
hoga bus ab yudh tabhi
bindu aur sagar ki samta
ho sakti hai bhala kahin!
gurutam giri se gaj shawak ko
takkar lena yogya nahin॥”
dekh use bhaybhit dhananjay
bole yon usse swachchhand—
“yah kya, rajakumar! abhi se
paDte ho tum kaise mand?
weer pita ke putr aho! tum
is prakar karte akrand,
sawdhan! chanchal hokar yon
mat dena ari ko anand॥
bhala abhi tak shatru janon ne
hai aisa kya kary kiya—
jisne tumse weer putr ka
hirdai achanak kanpa diya?
kisi kary ko dekh pratham hi
shankit hona theek nahin,
yash wisheshata se hi milta
hai ye baat alik nahin॥
swarth siddhi ke liye lok mein
durachar jo karte hain,
durachar hi ke karan we
durbal hokar marte hain
duryodhan duhshasnadi hain
maha durachari dhik patr,
ao unka wadh karne mein
ban jawen hum karan matr॥
jaisa nishchay kar aaye ho
ab waisa hi kaam karo,
dhairya dharo, mat Daro wighn se
age baDhkar nam kiro
jo kuch garw jana aaye ho
dekho, wo kho jaye nahin,
karo bhool kar kaam na aisa
sir nicha ho jaye kahin॥”
is prakar arjun ne bahu widh
diya use utsah baDa,
par bhay ke karan uska kuch
us par nahin prabhaw paDa
bola wah—“chahe jo ho par
isse laD na sakunga main,
brihannle! rath ko lauta de
tujhe bahut dhan dunga main॥”
arjun ko yon uttar de kar
uttar rath se utar bhaga!
tab we use pakaDne dauDe
man mein kuch kuch krodh jaga
tatkshan duryodhan ke dal mein
attahas yon bhas hua—
chanchal karta hua jaldhi ko
manon indu wikas hua॥
“kshatriy hokar ran se Darte
hai tumko dhikkar are!”
yon kah dhawit hue parth jab
uDe kesh pat pawan bhare
kach kalap ja pakDa uska
swachchh pat ka sa lachchha,
“aise jine ke badle to
hai mar jana hi achchha॥
aho! tuchchh jiwan par tumko
hai itni mamta man mein,
hanste hanste mar jate hain
dheer dharm ke sadhan mein
kshatriy hokar peeth dikhate
nishchay hi ye hai durdaiw,
kya kartawya wimukh hokar bhi
jo sakte ho, kaho, sadaiw?
aisa haal abhi se hai jab
tab aage kaisa hoga?
wriddhkal kya kabhi kisi ka
yuwakal jaisa hoga?
kirtiman jan mara hua bhi
amar hua jag mein jita,
mare hue se bhi jite ji
hai apgit gaya bita॥
Daro nahin tum yudh na karna
sabse swayan laDunga main,
bano sarthi hi tum mere
anch na aane dunga main
hota aho! subhadranandan
yadi abhimanyu aaj is kal,
to ye abhi jaan lete tum—
kitna sahas rakhte baal॥”
yon kah kar arjun ne apna
pura parichai diya use,
chakit, winit aur phir nirbhay
is prakar se kiya use
usi shami padap ke niche
phir we usko le aaye,
aur dikhakar apne ayudh
uske dwara utraye॥
wesh badalne lage parth tab
kauraw bhramit hue bhram se,
dhuli dhusarit ratn shan par
laga chamakne kram kram se!
duryodhan ki sab ashayen
mitti mein mil gai wahin,
hota hai parinam kahin bhi
bure kaam ka bhala nahin॥
स्रोत :
पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 94)
संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
संस्करण : 1994
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