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बूँद-बूँद कर रीतते हैं प्राण

boond boond kar ritte hain praan

चंचला पाठक

चंचला पाठक

बूँद-बूँद कर रीतते हैं प्राण

चंचला पाठक

और अधिकचंचला पाठक

    बूँद-बूँद कर रीतते हैं प्राण

    देखना, आँखों के राह ही करेंगे प्रयाण

    किस मार्ग से गुज़री जेठ की रोहिणी

    तपती दुपहरी में धारासार बरसी

    कौन ढूँढे अग्नि में सोम कि सोम में आग

    जब करते थे हम अपनी-अपनी ड्योढियों का संक्रमण

    नौतपा ऐसे ही तो विलीन हो जाती थी

    हमारे गमनागमनों के सम पर

    धारासार बरसता था अमृत

    देह की पाँक में रोपते थे प्राणों के बीहन-बीज

    चटक कर टूटी नींद का विलाप कौन बाँचे

    कोई गरूड़पुराण नहीं बाँधता मेढ़

    यह एकांत रौरव ही है इस धरती का

    जब होती हों स्मृतियाँ प्रतिध्वनित

    ये गरज ये बरस ये कटार सी बेधती दामिनी

    रोहिणी के प्राँगण में बूँद-बूँद रीतती

    नौतपा की अघट प्रतीक्षा है

    ऊपर से ये धारासार!

    देखना, आँखों की ड्योढी निर्बंध ही छूटेगी

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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