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आरंभ

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मलयज

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मलयज

और अधिकमलयज

    आँख खुलते ही

    चोट और शब्द दोनों एक दूसरे में घिसटते

    दूर तक सड़कों पर उतर आते हैं

    एक हुजूम की व्यथाएँ और आर्त्तनाद

    दुख की सुख को लपक लेने की व्यंजनाएँ और छल

    अर्थ को कभी छुते अर्थ से कभी दूर जाते हुए

    हमेशा एक तंग कोठरी के अंत में

    रात

    मेरे भीतर का सोया जल

    मेरे दिन की उँगलियों से रिसकर गिरता है

    अथ मेरा वहीं है—

    जड़ की तरफ़ लौटना रात की तरफ़ लौटना है

    अपने तने पर चाक़ुओं के निशान, शाख़ों पर टँगी दुर्घटनाएँ

    पत्तों में छुपे डर लिए मैं घर की तरफ़ मुड़ता हूँ

    घर मेरे अस्तित्व की रात है : एक गौंजी हुई रजाई

    एक मैला-कुचैला बिस्तर, बच्चे, बीवी

    बाहर की टूटन में कितनी सुरक्षा है!

    भीतर का जुड़ना है जगह-जगह खिसकी हुई रात से

    जुड़ना तार-तार अस्तित्व में ऊबड़-खाबड़ उलझे

    चेहरों के सवालों से भिड़ना

    एक आईना सामने रख कर ख़ुद पर तरस खाना, मुक्के

    मारना, थूकना

    आईने में पड़ते अक्स से कविता की ठाठर मढ़ना

    भीतर मुड़ना है क्षितिज पर मिटते जाते ओठों से

    हँसी को अलग करना

    ज़मीन पर मुद्दत से पड़ी छायाओं को

    हाथों से छूना

    सन्नाटे के सीने से चिपकी हुई एक ज़रा-सी हरकत

    ठिठके हुए जंगल के एक तिनके-इशारे का

    अपनी नोक से

    साँसों के कुल संसार को लहूलुहान कर देना

    डूबने के पहले अंतिम बार वहीं

    मैं अपने को टटोलता हूँ :

    क्या यही है मेरा आरंभ?

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 58)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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