सिरहाने का दिया अभी ही बुझा है,
जाग पड़ी हूँ भोर की कोयल की कूक से
अलसाए चरणों से खिड़की पर आके बैठी हूँ,
नई माला पहन ली है शिथिल केशों में।
ऐसे ही समय लाल-धूसर रास्ते पर
तरुण पथिक दिखाई दिया राज-रथ पर।
(उसके) सोने के मुकुट पर झिलमिला रहा है उषा का प्रकाश,
मोतियों की माला गले में झलक रही है।
पूछा उसने कातर वाणी में, ‘वह कहाँ है वह कहाँ है’
व्याकुल चरणों से मेरे ही दरवाज़े पर उतरकर!
मैं लाजों गड़ गई, हाय कैसे कहूँ,
‘नवीन पथिक, वह तो मैं ही हूँ, वही तो मैं हूँ।’
गोधूलि का समय था, तब भी दिया नहीं जला था,
मैं लिलार पर सोने की बिंदिया लगा रही थी।
सोने का दर्पण हाथ में लेकर खिड़की पर (बैठी हुई)
बाँध रही थी जूड़ा, अपने में खोई हुई।
ऐसे ही समय संध्या से धूसर बने रास्ते पर आया
करुण नयन, तरुण पथिक रथ पर।
घोड़े पसीने से लथपथ बने व्याकुल थे,
(पथिक के) वस्त्र और आभूषण धूल से भर गए थे।
पूछा उसने कातर वाणी में, ‘वह कहाँ है वह कहाँ है’
व्याकुल चरणों से मेरे ही दरवाज़े पर उतरकर
मैं लाजों गड़ गई, हाय कैसे कहूँ,
‘थके बटोही, वह तो मैं ही हूँ वही तो मैं हूँ।’
फागुन की रात है। घर में दिया जल रहा है,
दक्खिनी बयार छाती पर लोट रही है।
सोने के पिंजड़े में सो रही है मुखरा मैना,
दरवाज़े के सामने सो गया है द्वारपाल।
धूप के धुएँ से सुहाग का घर धूसर हो उठा है,
अगरु की गंध से सारा शरीर आकुल हो रहा है।
मयूर-कंठी काँचली पहन रखी है,
दूब के समान श्यामल आँचल वक्षःस्थल पर खींचकर।
विजन राजपथ की ओर एकटक देख रही हूँ,
खिड़की के नीचे बैठ गई हूँ धूल पर उतर के—
तीन पहर रात से अकेली बैठी गान गाए जा रही हूँ,
‘हताश बटोही, वह तो मैं ही हूँ, वही तो मैं हूँ।’
- पुस्तक : रवींद्रनाथ की कविताएँ (पृष्ठ 134)
- रचनाकार : रवींद्रनाथ टैगोर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1967
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