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भय

bhay

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

सूर्य मिश्र

और अधिकसूर्य मिश्र

    आज क्या अंतिम दिन रमण का स्वप्न देखने कोई

    हवा की साँसों में हिलता देह का बोहित

    घटनाओं का आलिंगन,

    तृतीया का यवनिका पात;

    भय का उत्तीर्ण क्षत या अधिक भय का दुर्ग

    ढहेगा मुझपर लेकर अपना

    काला स्याह लोमश भूगोल॥

    हर रात बिस्तर पर देखता सपना

    ख़तम होगा सारा भय, सारा अपमान

    मान का सपना, चाव प्रियतम रक्त-सा दुःख;

    रहे सूर्य के तेज में जलेगी सारी क्लांति

    सारा अपचय,

    आज उस सब की रति होगी,

    हो जाऊँगा निर्वेद मुर्दार,

    शोक का सपना किसी का नहीं देख सकूँ॥

    मैं स्वयं शोकातुर हस्ताक्षर-सा

    भय के लोमश हाथों बार-बार आतंक में

    डरता दबे पाँव चल रहा अपने को समझाता?

    आज किन्तु भय चारों ओर

    भयमय जीवन,

    कितनी विलक्षण पृथ्वी है?

    मरी जा रही दुःस्वप्नों में।

    दर्पण में देखते श्रीहीन चेहरा अपना,

    दीवार पर अपनी छाँव,

    उसमें छेद जाता,

    कान में अँगुली देकर अपने प्राणों का

    घू-घू शब्द सुनता नहीं,

    सारी चेष्टा मर जाती,

    भय चलता सारी सीमाएँ लाँघकर॥

    बालू या कीचड़ में पगचिह्न नहीं दिखते,

    पेड़ सारे, फल सारे,

    पत्ते सुनहले-सुनहले

    हाथ में लेकर विष लड्डू गधे पर चढ़

    बाँहों में भरते प्रेतात्माओं को

    समूची देह तेल में लथपथ॥

    नंगी मेरी सुनहली देह पर केवल जवाकुसुम माला

    हार-जीत है, राह है तभी हाथ के इशारे में बुला रहे

    भयंकर कोलाहल, अत्यंत विशाल।

    आज क्या अंतिम दिन हमारा कोई सपना देखने का

    हवा में हिल रहा देह का भूगोल?

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 299)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : सूर्य मिश्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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