एक
लीजिए हम डर गए
लीजिए हम मर गए
आप ही यहाँ रहें
आप ही अपनी कहें
आपकी सरकार है
आपकी ब्योपार है
हम अगर लड़ें भी तो
सामने पड़ें भी तो
आप कर देंगे फ़ना
आपका भुजबल घना
आपकी जाँघों में दम
आपकी आँखों में यम
आप चल दें जिस तरफ़
हो जाए परलय उस तरफ़
सुर असुर सब आप जी
सींग-खुर सब आप जी
आपको संशय नहीं
आपको कुछ भय नहीं
आपसे सीता डरे
मंदोदरी छिपती फिरे
आप पंडित आप जज
आपका ऊँचा ध्वज।
दो
लीजिए हम बैठ जाते हैं उधर, अब आप चलिए
ठीक है, इतना ज़रूरी है तो पहले राख मलिए
अब उठें, उठकर कहें, जो मन में हैं खुलकर कहें
तोड़ देंगे? फोड़ देंगे? ठीक कुछ बेहतर कहें
हर सड़क का नाम स्वदेशी? जी साहिब कर दिया
हर तरफ़ हुक्काम स्वदेशी? जी मालिक कर दिया
औरतें साड़ी में निकलें? ओत्तेरी, जी भेज दीं
साथ में सिंदूर की डिबियाएँ भी? जी भेज दीं
लिखने-पढ़ने-सोचने वाले भी साहिब जा चुके
मीर, ख़ुसरो, जोश, मंटो और ग़ालिब? जा चुके
ज्ञान के भूखों को भी संतुष्ट हमने कर दिया
वेद सबके सामने एक-एक कॉपी धर दिया
कर दिया जी, कर कर दिया इतिहास भी सब ठीक-ठाक
बालकों के मुँह पर चिपका दी है इक-इक गज़ की नाक
औरतें तो जी लगी हैं रात-दिन जचगी पे ही
दफ़्तरों में कारख़ानों में हैं केवल मर्द जी
यौन-यौवन लग गए हैं संतति-निर्माण में
सब प्राकिरतिक विधि से हैं जुटे अभियान में
समलैंगिक? जी सब हवालातों में कसरत कर रहे
सब सही कर देगी सर अपनी पुलिस, अमर रहे
परकटी वे औरतें भी हैं वहीं पर सब जनाब
हो गए सारे सिपाही वक़्त के पाबंद साब
तीन
और कहिए,
क्या करें
क्या जल मरें?
जिनके हृदय में ताप है, वे सब?
जिनके लिए दिल भी दुखाना पाप है, वे सब?
मस्तिष्क जिनका है विकल, वे सब?
जो चाहते हैं और उजले आज-कल, वे सब?
जो सोचते हैं हर गली पहुँचे धरा के छोर तक, वे भी?
जिनके लिए भाई-बहन हैं शेर-बिल्ली-मोर तक, वे भी?
जो चाहते हैं हाथ हर ख़ुद उठ के पहुँच कौर तक, वे भी?
जो एक रोटी शाम को खा कुलबुलाएँ भोर तक, वे भी?
जिनके लिए हर रंग है इंसान का ही रंग!—जी अच्छा!
जो औरतों पर मर्द के ज़ुल्मों से होते दंग!—जी अच्छा!
जो मर्द होकर भी नहीं करते कभी हुड़दंग!—जी अच्छा!
पतलून जिनकी चुस्त, औ’ कुरते की बाज़ू तंग!—जी अच्छा!
जी अच्छा, कि जी साहिब, कि जी मालिक
ये सारे आ गए
आइए अब
लाइए सब फ़ौज-फाटा
तीर-तश्कर
गोलियाँ-बारूद-गोले
जो भी है
जो आप चाहें
जिस तरह भी आपका मन हो,
लात से, घूँसे से, लाठी से कि डंडे से
जूते से या झंडे से
लगे जो आपको बेहतर
उठाकर मारिए
जी, जिस तरह चाहें जहाँ चाहें
अदालत में या संसद में
सड़क पर या कि घर में
हमें अब कुछ नहीं कहना
कि हम जी डर गए
और लीजिए...
ये मर गए।
- पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 22)
- रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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