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भटक रही है वाम चेतना

bhatak rahi hai wam chetna

कुबेर दत्त

कुबेर दत्त

भटक रही है वाम चेतना

कुबेर दत्त

और अधिककुबेर दत्त

    चिल्लपों है मची हुई

    नींदे-नींदे पिल्लों में

    दो-तीन दिन के ही तो हैं वे।

    सूखा घास-पुआल नाचता

    फरफुल

    फरफुल।

    खुसर फुसर है

    ओसारे के कोने में दुबके बिल्लों में,

    माणो कुतिया

    गली-मुहल्ले की सखियों से

    बतियाकर

    घर-घूमी करके

    आने ही वाली है समझो।

    बड़ी मालकिन गई काम पर।

    माणो कुतिया

    बड़ी मालकिन के जाते ही

    हो जाती है घर-ठकुराइन

    बिल्ले, बिल्लों, बिल्ली की

    आहट तक से वह

    गुर्राती फुफकाती रहती...

    ऐसे आलम में ही

    चूही के भी नन्हे बालक पलते

    इसी कोठरी के कोनों में

    जीवन का रस पीते

    करते जीने की तैयारी।

    कभी-कभी मैं

    सोचा करता

    कोई तो दिन ऐसा आए

    पिल्ले-बिल्ले-चूहे के बच्चों की बाँहें

    बढ़ें एक-दूजे की ख़ातिर...

    नदी पर जो

    रहता

    खूँखा खूँखा हिंसक एक जानवर

    जब जी चाहे

    ले जाता है पिल्ले-बिल्ले

    वगरा वगरा

    चूहे तक को चटनी समझे...

    ऐसे हिंसक क़ातिल से

    टकराने को जब

    पिल्ले-बिल्ले-चूहों के सुत

    एका करके हल्ला बोलें

    उस अद्भुत दिन की टोही में

    भटक रही है वाम चेतना,

    सोच रही है

    जो जीना चाहते हैं निर्भय, निर्गुण होकर

    डर, शोषण के कालपात्र को फूँक-फाँक कर

    समता का वे राग अनोखा गाएँ कैसे

    बिन बीमारी का शरीर फिर पाएँ कैसे!

    स्रोत :
    • पुस्तक : काल काल आपात (पृष्ठ 63)
    • रचनाकार : कुबेर दत्त
    • प्रकाशन : किताब घर
    • संस्करण : 1994

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