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भाषा से परे

bhasha se pare

कुमार अम्बुज

कुमार अम्बुज

भाषा से परे

कुमार अम्बुज

और अधिककुमार अम्बुज

    सरसराहट की भी जो एक भाषा है

    जैसे चहचहाहट की और चुप्पी की

    धूप की उदासी की

    और चंद्रमा के दिखने की एक भाषा है

    जैसे अन्याय के दृश्य की

    और निद्रा हर लेने वाले स्वर की

    जैसे बढ़ई के रंदे की

    और नाविक के चप्पू की जो भाषा है

    इन अनंत भाषाओं के बीच

    जो जानी-पहचानी-सी भाषाएँ हैं चलन में

    उनमें से एक भाषा के सामर्थ्य के

    कोलाहल और एकांत में रहता है कवि

    मनुष्य द्वारा बना ली गई भाषाओं के बाहर

    जो भाषाएँ हैं असंख्य और अकूत

    उन सबको अपनी भाषा में जगह देता हुआ

    उनकी ध्वनियों को और ख़ामोशियों को

    ठोंक-पीट कर काम लायक़ बनाता

    समाज के हाशिए पर बैठा हुआ जैसे ठीक बीच में

    एक दिन जो उसकी बेचैनी है उससे कहती है

    भुगतो उसकी यातना भी जो दी जा रही है निरपराध को

    चीख़ के बाद के एक स्त्री के मौन में जाकर रहो

    नींद में रह रही उसकी सिसकी में ठहरो

    और उस नीली लौ में जो बुझने से पहले

    निर्बल दीपशिखा के पेराबोला में चमकती थी तेज़

    और उस कराह में जो ग़रीबी से पैदा होती है

    लिखो हमारे प्रेम को असमर्थ भाषा के

    किसी समर्थ दिखते कमज़ोर से शब्द में

    एक कोशिश के गर्भ में रहो और देखो कि वह

    निष्फल हो इस बार

    नश्वर में रहते हुए अनश्वर की तरह जो जीवन है

    प्रकाश के वृत्त के बाहर जो निर्वचन अंधकार है

    खींच कर लाओ उसे भी भाषा की परिधि में

    भाषा की लाठी के सहारे ही चढ़ना होगा

    भाषा से परे का यह दुर्गम

    आकर्षक पहाड़।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुमार अम्बुज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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