बहुत दिन भ्रमणकर अविरत,
देख नाना स्थान भू भारत।
उत्तराखंड या हो दक्षिण पथ,
भाग्यवश भ्रमण किया चक्रवत।
भारत के रत्न सीमांत हैं, अचल,
देखा हिमाद्रि हिम पूर्ण ऊर्जस्वल।
चरणों में कोटी-कोटी शिखर समान,
सर्वोच्च शोभा दे रहे शुभ्र शैलराज।
शृंगोपरि शृंग-शृंग तदुपरि,
नील व्योम फैला है चित्रित परि।
निहार मुकुट से मस्तक मंडित,
स्कंध शोभित शुभ्र गंगा उपवीत।
निस्तब्ध नीरव है वह महाविजन,
बना सनातन श्वेत तुषार का आसन।
व्योमकेश की मूर्ति देखी चौंक,
हो गई रूप देख चित्तवृत्ति थक।
मन ही मन वह नमित हुआ नीरव
“नमो देवात्मन” श्रीगौरी गुर।
राजस्थान में भ्रमण भीम-मरुथली,
देखी वहाँ भीम रुखी शैलावली।
नीर-तरु-हीन, वंधुर, कर्कश,
कराल जैसे हो काल सर्वंकष
चंडी-सी किरणें खर अतिशय,
दर्शनशायी-भोग अंतस्थल विषमय।
तप्त वायु जहाँ प्रचंड संचरित,
पांथ आयु लें प्रतिपाद हारित।
छायादान देती जहाँ नागफनी,
नीरदान में फिर मरीचिका वेणी।
तृषातुर गृह में जैसे बैठा रोगी,
स्मरण करता कमलिनी हरिड़ सरसी।
उसी रुक्ष दृश्य में स्निग्ध-छवि तेरी,
नेत्रतिथि स्मृति करते थे मेरी।
भ्रमण किया विन्धयाद्रि कांतार,
धुँआधार प्रपात झरता शतधार।
भैरव रव में रेवा देती छलाँग
जन-मानस में जगमगाती प्रकंप।
शुभ्र स्वच्छ पय-प्रपात-सुभगा,
हर-जटा-भ्रष्टा यथा त्रिपथगा।
श्रीकर जलद में विभावसुर,
सृजन जहाँ शक्रचाप मनोहर।
सुना श्रवण से वह भैरव रव,
ऊर्ध्व में देखा वहाँ जल का तांडव।
भ्रमण किया दक्षिणापथ में उपत्यका,
झिली-झंकारित अटवी दंडका।
तीर्थाश्रम, गिरी, तटनी-कंदरा,
महारण्माला थी, चित्र कलेवरा।
खर-दूषण, त्रिशिरा अध्यूसित,
जन्मस्थान था जिनका सन्निहत।
धारा-स्रावी, भीमाराणी हिमवंत
पर्जन्य गर्जन में काँपते दिगंत।
जहाँ मेघालोक में प्रफुल्ल हो अंतर
मैथिली-पालित केकी, वंशधर।
नीप में नृत्य करते नीलकंठ केका,
आज भी सूचित रामाश्रम की रेखा।
भीषण कंदरा में बैठा वहाँ,
गद्-गद् शब्द में गोदावरी जहाँ।
कुहर में पड़ती भृगुदेह पर झर,
वहाँ मैंने तुम्हें नहीं किया स्मरण।
वात्या-आंदोलित महाभयंकर था,
भ्रमण किया भीषण राज्य वरुण का।
नहीं चक्रवात में अयश्चक्रप्रभ,
नीलार्णव देह में लग्न नील नभ।
ऊर्मि पर ऊर्मि-ऊर्मि तदुपर
पोत ग्रसने आती रही खरतर।
स्तब्ध भाव में ये महादृश्यगण,
देख भारत में नाना भ्रमण कर।
भीषण, विराट, विकट, उदार
दृश्य देखे विस्मय हुआ मन में अपार।
चित्तवृत्ति अपनी राह गई उड़,
सत्ता गई उसी महाभाव में डूब।
खर सौर कर में हों तारक जैसे
अस्मिता हुई विस्मय में मगन।
गुरु-सी दूर कर के भीति,
सखी-सी स्मरण करता तुम्हें निति।
इतर जन में अवसाद कर,
योगी ऋषिजनों का स्थान मनोहर।
रवि-कर में मुद कमल वहाँ,
अन्य पुष्प फिर स्निग्ध शशिकर में,
पीयूष प्रफुल्ल अंतर में।
तेरी छवि निरखने वह रूप मन,
लभता सुमधुर शांति का आस्वादन।
विराट नहीं तू तो है सुवृहत,
स्तब्ध नहीं मन हो जाता उन्नत।
अवसाद में या आत्म-विस्मृति में,
पड़ता नहीं मन तेरे तीर में।
स्निग्ध रूप तेरा रूप-उल्लासक,
सुमधुर द्वैत-भार का है द्योतक।।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 25)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : राधानाथ राय
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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