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बतियाते हैं पेड़

batiyate hain peD

गंगाप्रसाद विमल

गंगाप्रसाद विमल

बतियाते हैं पेड़

गंगाप्रसाद विमल

और अधिकगंगाप्रसाद विमल

    बतियाते हैं पेड़

    अक्सर आपस में

    और कई बार धूप और आसमान से भी

    और कई बार तो निपट निचाट में

    मैंने एक अकेले पेड़ को

    ख़ुद से बतियाते हुए देखा है।

    शून्य की भाषा

    इतनी ही

    कि हम उसमें विलीन रहें

    और अपने भौतिक अस्तित्व को

    भूलते रहें

    सन्नाटे में

    चिर प्रतीक्षा

    अपने घटने का इंतज़ार नहीं करती

    अमरत्व में।

    विलय कर शेष को

    होने देती है रूपायित

    और जैसे ही कुछ

    रूपायित होता है

    निर्धारित कर लेता है अपना अंत

    जबकि शून्य में

    शुरुआत है और अंत

    अस्तित्व सन्नाटे का प्रतिपक्ष है

    उसे मिटना ही है और

    अमरत्व के नाद को अनसुना कर

    फिर-फिर मिटना है

    पेड़ अमरत्व की ओर पीठ किए

    हवा के हर झोंके का

    इस तरह करते हैं स्वागत

    जैसे वही अमरत्व हो

    वहीं जहाँ कुछ नहीं है

    वह भाषा छपती है और

    ख़ुद को वितरित करती है

    गहरे अकर्म में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैं वहाँ हूँ (पृष्ठ 14)
    • रचनाकार : गंगाप्रसाद विमल
    • प्रकाशन : किताबघर
    • संस्करण : 1996

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