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बतौर साज़िश

bataur sazish

आलोक रंजन

आलोक रंजन

बतौर साज़िश

आलोक रंजन

और अधिकआलोक रंजन

    चुप्पी थी

    ही बोलचाल

    वह मुलाकात थी—

    सौ साज़िशों का परिणाम

    कह दूँ कि पानी पर सैर,

    वास्को डी गामा की क़ब्र उनमें से एक थी

    दूसरे शहर में

    लोग बदल जाते हैं पर

    प्रेम नहीं...

    हैरानी थी इसी बात की

    हमारा नाटक हमें नाटक नहीं लगा!

    हवाओं की तरह का

    हमारे हाथों का स्पर्श

    और उनका हँसकर दूर हो जाना

    तीसरा लाख चाहकर भी

    प्रेम देख पाए पर

    हवा में तैरता मोह तो

    परखता ही होगा...

    कौन जाने!

    अच्छा रहा

    इस मुलाक़ात ने उंमाद नहीं दिया

    बस पास होने,

    साथ चलने की

    सुडौल ख़ुशी थी।

    जिस प्रेम ने कुछ बरस

    बिता लिए

    उसका दूसरे शहर में भी चलना

    अपने शहर जैसा लगता है

    जैसे रोज़ अपनी खिड़की से झाँकना

    और उस अलग होने जैसा

    अलग होना हो

    साज़िशों पर निगरानियाँ तो

    जीत ही जाती हैं

    पर

    यूँ खिड़की पर खड़ा होना

    यूँ अफ़सोस में भी

    हँसते हुए बाहर आना

    ऐसे जैसे

    फटे दूध की चाय

    शहर जैसे शहरों में ही प्रेम

    ऐसे जाता है

    जैसे रूखी रोटी और नमक।

    कितना ही अजीब था ये मिलना

    मिलने की तरह

    होकर भी होने की तरह

    छूकर भी छूने की तरह

    बाहर आया तो

    हवा का लहजा उतना ही नर्म

    जानेवालों को जाने की उतनी ही जल्दी

    कि भूल गए हों-

    जल्दी को भी समय तो चाहिए ही

    पर प्रेम तो

    वहीं रुका था तुम्हारे पास

    हर बार

    कुछ कुछ तो छूटना रहता ही है।

    चलो तो

    इस तरह

    और साज़िशें करते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोक रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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