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लुका-छिपी

luka chhipi

रवींद्रनाथ टैगोर

यदि मैं शरारत करूँ

फूल बनकर चम्पा के वृक्ष पर जा खिलूँ

किसी भोर बेला में डाली पर हिलने-डुलने लगूँ

तब तो माँ तुम मुझसे हार जाओगी

माँ तब क्या तुम मुझे पहचान सकोगी

तुम पुकारोगी मुन्ना कहाँ गया रे

और मैं चुपचाप केवल हँसूँगा

जब तुम किसी काम में लगी रहोगी

तब मैं आँखें खोले हुए सब-कुछ देखूँगा

स्नान करके तुम चम्पा के नीचे से

निकलोगी पीठ पर केश फैलाए हुए

वहाँ से पूजा-घर में जाओगी

तब तुम्हें दूर से फूल की सुगंध आएगी

किंतु तुम समझ नहीं पाओगी

कि सुगंध तुम्हारे मुन्ना के शरीर से रही है

सबको खिला-पिलाकर दुपहर में

तुम महाभारत लेकर बैठोगी

कमरे की खिड़की से वृक्ष की छाया

तुम्हारी पीठ और गोद में पड़ेगी

मैं तुम्हारी पुस्तक पर झुलाऊँगा

अपनी नन्ही-सी छाया

क्या तुम समझ सकोगी

तुम्हारी आँखों में मुन्ना की छाया तैर रही है

साँझ को दिया जलाकर

जब तुम गाय की सार में जाओगी

तब मैं फूल का यह खेल समाप्त करके

टप से धरती पर टपक पडूँगा

और फिर से तुम्हारा मुन्ना बन जाऊँगा

तुम्हारे पास आकर कहूँगा कहानी सुनाओ

तुम पूछोगी तू कहाँ गया था रे नटखट

मैं कहूँगा सो मैं नहीं बताऊँगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : रवींद्रनाथ की कविताएँ (पृष्ठ 211)
  • रचनाकार : रवींद्रनाथ टैगोर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1967

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