कहा क़साई ने बकरी से—मैं तुझ पर मरता हूँ
तेरे सुंदर खुर-कमलों पर उर अपना धरता हूँ
पुन: कहा उसने बकरी से—चल, दोनों चलते हैं
दूर कहीं इस क्रूर जगत से, यहाँ प्राण जलते हैं
बात क़साई की सुन बकरी ख़ुशी-ख़ुशी मिमियाई
बोली—मैं भी तेरी ख़ातिर छोड़-छाड़ सब आई
चला क़साई बकरी को ले एक गहन निर्जन में
जहाँ पुकारें घुटकर मरतीं, उसी भयानक वन में
कहा क़साई ने फिर उससे—सुन मेरी दिलजानी
प्यार माँगता त्याग, प्यार का मानी है क़ुरबानी
प्रेम सत्य है केवल, मिथ्या हैं ये अंजर-पंजर
कहकर वह उसकी गरदन पर लगा चलाने ख़ंजर
बकरी की बोटियाँ बेचकर मदमाता मस्ती में
आ पहुँचा वह पुनः बकरियों की भोली बस्ती में
बोला उनसे—अरी बकरियो, फिरो न मारी-मारी
सुनो एक संदेश सुहावन, बकरीगण-हितकारी
जिस जगती में वधिक न बंधन, क्षमा-दया छाई है
जहाँ अहिंसा परम धर्म है, जीवन सुखदाई है
जिस जगती में हरियाली चहुँओर वास करती है
और क्षितिज तक सिर्फ़ घास ही घास लास करती है
उसी महाजगती का आमंत्रण लेकर मैं आया
नव आशाओं, स्वर्गिक सपनों की सौग़ातें लाया
यह सुन सभी बकरियाँ गाने लगीं गान मनभाता—
बकरीमन-अधिनायक जय हे, बकरीभाग्यविधाता!
- पुस्तक : दिव्य क़ैदख़ाने में (पृष्ठ 84)
- रचनाकार : राकेश रंजन
- प्रकाशन : राधाकृष्ण, प्रकाशन
- संस्करण : 2017
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.