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बकी

baki

अनुवाद : चंद्रकांत बांदिवडेकर

बकी खुजली आने पर खरर-खर खुजलाती थी, बालों की जुएँ

नहीं बीनी थीं उसने पिछले कई महीनों से, सावित्री की मौत के बाद

बार-बार बरबस याद आती थी उसे पेट से पैदा हुई सावित्री की सूखी उँगलियाँ,

बैठी नाक और दुमची की हड्डी पर बना ज़हरवाद का वृंदावन।

कृष्णाप्पा था लेकिन बेहद निकम्मा : छिगुनी बाएँ हाथ की

लगी थी सिकुड़ने, देखकर उसे ग्राहक थे सहमते।

इधर पिंजरे में बैठ प्रतीक्षा करने के बजाय वह आती थी सीधे सड़क पर

(पुलिस को चकमा देकर) अभी निबट लेती। जी लेती थी जिद्द से।

सिद्द जौहार के एक जोरू से जोड़ती थी नाता अपने ख़ून का।

संबू सेठ का पूरा बकाया अभी भी था उसे लौटाना;

‘ईमान नहीं तो इंसान काहे का’—कहा करती कृष्णाप्पा से।

और कराहती बीस साल पुराने पेडू के दर्द से।

दत्त की खिदमत में अब वह लाई थी साई बाबा को।

‘अकेले दत्त पर कितना भार रखा जाए, लेने वाला हुआ सो क्या?’

बकी का सही नाम था बकुल (देखिए : नगरपालिका में जन्म का पंजीकरण)।

स्रोत :
  • पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 92)
  • रचनाकार : विंदा करंदीकर
  • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
  • संस्करण : 2001

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