बहरेपने के अभिनय में
bahrepne ke abhinay mein
ख़ामोशी में छेद करना ज़रूरी है
इसलिए अँधेरे में उतरते हुए मैं
पिन को फ़ुर्सत नहीं दूँगा...
पत्थर की भाषा यदि आँखों में है
तो कहीं दूर झरना भी होगा
इस झरने के भीतर वह आवाज़ भी होगी
जिसे डुबो कर आने के बाद
कोई पहाड़ जितना अकेला हो जाता है
कितनी दूर और अँधेर में बैठे हैं जज
और बीच में बारिश है
पीली और जंगलों को दहलाती हुई तेज़
मैंने दाँतों की खोह से शुरू की थी
अपनी सुरसुराहट अब
ऊपर के हिस्से में ज़ारी है
मस्तिष्क के ज़ख़्म नज़दीक... मैंने हर किसी से पूछा,
वे सब दूसरों से पूछने लगे
और नेक विचारों के बावजूद
उनका मसौदा राहत के बदले
एक ख़ौफ़नाक कार्रवाई थी,
आदमी की आँख गर्दन, ज़ुबान और पेट के ख़िलाफ़
इस त्रास को उत्सव से ढाँप कर
सितार के टुकड़ों को चबाने के बाद
यह एक नया नाटक है
आदमी के अस्थि-पंजर को खड़खड़ाने का...
पतझर की नदी में शहर डूबता है धीरे-धीरे
और टॉवर की आदमक़द घड़ी में
बारह के खड़कों के साथ एक क़त्ल शुरू होता है
वे सब बत्ती बुझाकर
झाँकने लगते हैं शीशे के पीछे से
दचका खाकर
चीख़ में बदल जाती है
बच्चों की नींद
औरतें कपड़े सँभालकर
बाथरूम की ओर बढ़ती हैं
काँपती हुई...
बावड़ी के भीतर से कोई नहीं
निकलता है
बरगद के नीचे काला घोड़ा हिनहिनाते हुए ढूँढ़ता है
मैं सूँघता हूँ हवा में रक्त जो आदमी का नमक है
और घोड़े का खाद...
तभी किसी हड्डी से
टकराकर मेरी पिन टूट जाती है...
गए दस सालों से
मैं बताना चाहता हूँ
पर हमेशा
वे बहरे लोगों का
अभिनय करते हैं
कभी गर्मी और कभी
जाड़े का बहाना लेकर
छत्तीस सौ पचास
क़ब्रों में बदलकर वे ख़ुश हैं
दस साल को...
जब कुछ ज़्यादा हड़कंप में
टूटने लगती हैं बस्तियाँ
तो वे आदमी का अस्थिपंजर
खड़खड़ाने लगते हैं
पूरा शहर ख़ामोशी में दुबका
देखने लगता है...
और दूर अँधेरे में बैठी तीन आकृतियाँ
शायद जजों को बिसूरने लगती हैं...
फिर सब कुछ
आहिस्ता-आहिस्ता गिरते
उजाले में
साफ़ हो जाता है
मैं समझ रहा हूँ
इस ख़ामोशी पर
पिन का कोई वश नहीं है...
पर
दोस्तों के दबे इशारे
उस तरफ़ हैं
जहाँ
बहरों का अभिनय करते-करते
वे सब
वाचाल हो गए हैं...
- पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
- प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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