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बाघ, चिड़ियाघर और मैं

bagh, chiDiyaghar aur main

नेहा नरूका

नेहा नरूका

बाघ, चिड़ियाघर और मैं

नेहा नरूका

और अधिकनेहा नरूका

    मैं ‘बाघ’ थी उन दिनों

    और मुझे बंद कर दिया गया पिंजड़े में

    मैंने भरसक कोशिश की पिंजड़ा तोड़ने की

    किया कितनी बार ख़ुद को लहूलुहान

    मेरी हरकतों से तंग आकर चिड़ियाघर का मालिक ग़ुस्से से लाल हो जाता

    और फिर डंडे, हंटर और करंट से

    मेरी आँखों, नाक, गालों, होंठों, छाती, हथेलियों, पीठ, जाँघों, टखनों, जिगर और आँतों तक पर वार करता

    मैं बेहोश होकर गिर जाती

    इस तरह धीरे-धीरे उन पिंजड़ों में दफ़न होने लगीं बर्बरता की कई कहानियाँ

    फिर बदलते वक़्त साथ एक दिन एक पिंजड़ा टूट गया

    मैं आज़ाद तो हो गई,

    पर मैं अब बाघ नहीं रही

    मेरे शरीर के भीतर गहरे घाव हो गए

    जैसे किसी ख़ूबसूरत घर के भीतर एक मुर्दा देह सड़ रही हो

    और शहर में सन्नाटा पसरा हो

    प्राकृतिक क्रियाएँ तक हो गईं बेहद कष्टदायक

    देखने में मैं किसी श्रेष्ठ चित्रकार की वह अद्भुत तस्वीर थी

    जिसे महसूस करके कई मुट्ठियाँ भिंचीं

    पर जिसे छूते ही पता चलता कि यह तो बस रंगों की बेजान कला है…

    बहुत मुश्किल रहा बू, ख़ून और पीर को बर्दाश्त करके अब तक ज़िंदा रह पाना

    फिर ज़िंदा होना ही काफ़ी नहीं था

    रोज़ ख़ुद से एक वादा करना था कि मुझे फिर से बाघ होना है

    उन दिनों जो हक़ीक़त थी,

    अब ख़्वाब है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहा नरूका
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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