बाबूजी की मूँछ बहुत बार
प्रेमचंद की तरह लगती है
कई आलोचक बताते हैं
प्रेमचंद ने अपनी मूँछ
लमही के रघु नाई से
हुबहू होरी की तरह कटवाई थी।
बाबूजी के सिर पर बाल
मेरे खेतों में उगी फ़सल की तरह थे
जिसे उम्र ने बहुत-सी बकरियों ने
साँझ के समय तमाम सतर्कताओं के बावजूद
घर लौटते समय उन्हें किनारे-किनारे चर लिया था।
बाबूजी का कंठ शिवजी की तरह था
जिसमें उन्होंने ढेर सारा दुःख और दर्द भर रखा था
भरसक कोशिश करते वह इसे छिपाए रखें
मगर धीरे-धीरे वह नीला पड़ता जा रहा था
बाबूजी के कान ब्रह्मांड की किसी जटिलतम गुत्थी की तरह थे
जिसको लेकर दुनिया के सारे महान दार्शनिक
अपनी-अपनी व्याख्याएँ कर-करके एक दिन मर गए थे
लेकिन उनके कानों में पता नहीं
किसकी रोती हुई आवाज़ आती थी
जो सभ्यताओं के विकास से लेकर
अभी तक लगातार चलती आ रही थी
बढ़ती ही जा रही थी
हालाँकि इस दर्द को पकड़ने के लिए
उनके कान की ढेर सारी कक्षाओं मे
वैज्ञानिक लगातार सैटेलाइट
छोड़े जा रहे थे...।
बाबूजी की नाक चिमनियों की तरह लगती
दिन भर उनके फेफड़े लोहार चाचा की धौंकनी की तरह चलते रहते
डॉक्टर बताते हैं कि दिन भर में जितना ख़ून बनता
सब उनकी धौंकनी जला देती
हालाँकि बाबूजी जो कुछ उगाते
उसका ज़्यादातर हिस्सा मुंबई में बैठे
किसी पूँजीपति के पास चला जाता था
बाबूजी को जीवन भर यह बात किसी चमत्कार की तरह लगती रही
बाबूजी का चेहरा उनके भाग्य की तरह खुरदरा और सख़्त था
जब कभी वह अपने ससुराल जाते
अपने चेहरे पर अपनी उगाई हुई सरसों का तेल मलते
उन्हें कभी-कभी सुबहा होता कि वह अपने कंधे पर मिरजई रख लें
तो कहीं अमिताभ बच्चन न लगने लगें
ख़ैर हमें पता होता कि उनके ये सारे जतन
हमारी माँ को ख़ुश करने के लिए होते
बाबूजी की आँखें उनकी माँ से मिलती थीं
खेत में जब कोई अंकुर निकलता
उसे वह अपनी माँ की तरह अपनी नज़रों से सहलाते
बाबूजी कभी रोते नहीं थे
लेकिन एक बार अम्मा ने शिउली के कुछ फूलों को देखकर
अनुमान लगाया था कि उस रोज़ बाबूजी रोए थे
बाबूजी की भौंहें दुर्वासा माफ़िक़ नहीं थीं
वह बहुत विनम्र थे
इतने विनम्र की धरती के गुरुत्व का
कभी उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया
हालाँकि वह करते तो उनकी ज़िंदगी शायद थोड़ी बेहतर होती।
बाबूजी के कंधे मुझे एटलस साइकिल पर छपे
किसी ग्रीक देवता की याद दिलाते
जिन्होंने अपने कंधों पर पूरी धरती को टिका रखा है
कभी-कभी लगता मास्टर माइंड कुंजी पर छपी
दिमाग़ की तस्वीर हो न हो मेरे बाबूजी की ही होगी
हालाँकि उस कुंजी के पास नहीं मेरे बाबूजी के पास
जीवन के पहाड़ पर चढ़ने-उतरने अँधेरे से लड़ते रहने के
एक सौ एक नियम थे जिन्हें उन्होंने दंत कथाओं से सीख रखा था
महायान की बड़की नाव हमारे किसी पूर्वज ने बनाई थी
बुद्ध के साथ मेरे बाबूजी भी उस नाव में चप्पू चलाते थे
उनके हाथ दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत हाथों में से एक थे
जो सिर्फ़ और सिर्फ़ दुनिया की बेहतरी के लिए उठते थे।
बाबूजी शहद खाते थे और जब वह बोलते
उनके शब्दों पर कुछ मीठा-मीठा-सा चिपका होता
हालाँकि वह नीम का दतुअन करते और दातों से ही अखरोट तोड़ते थे
बाबूजी के पैर बरगद की तरह मज़बूत और गहरे थे
इतने गहरे कि उनकी सोरे पाताल तक जाती थीं
जहाँ वह देवताओं से कभी-कभी बात करते
और हमें बता देते थे कि कल बारिश होगी
हालाँकि बहुत बार उनके देवता उनसे झूठ बोल जाते थे...
- रचनाकार : दीपक जायसवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.