“क्या किया पिताजी तुमने” कन्या ने आकर कहा
कनिष्ठ पुत्र की दोनों आँखों में आँसुओं की बाढ़ आ गई,
उसके बड़े भाई ने भी रोकर कहा
दो जमादार कुतिया को बाँधकर ले गए
गले में तार का फँदा डालकर, यम के समान ले गए
मना नहीं किया तुमने? रहे हो मूक के समान?
सुई द्वारा विष प्रविष्ट कर आज करेंगे वह उसका जीवन निःशेष
सोच नहीं सके तुम उसके छः नवजात बच्चों का क्लेश,
अभी तो उनकी आँखें खुली हैं, यह भी तुम न देख सके
जन्म हुए अभी डेढ़ पक्ष भी तो नहीं हुए
कौन उन्हें पालेगा? कौन पिलाएगा घूँट भर दूध?
एक के लिए छः प्राणों का अंत होगा
सबसे बड़े भाई ने कहा, देखो आज रात में ही
छहों के रोने से कान फटेंगे
कौन सह सकेगा उनका वह विकल क्रंदन
मार्ग में भटककर मरेंगे छः प्राण
निर्विकार होकर कहा मैंने, एक कुतिया के लिए इतना दुःख?
जानते हो तार के फँदे में मरते हैं कितने लोग?
मनुष्य के गले में मनुष्य डालता है फँदा
करोड़ों मूक लोगों की विनम्र प्रार्थना किसके कान तक पहुँचती है?
भूख की ज्वाला से मरती थी कुतिया शत बार
उसे स्वर्ग में भेज दिया है भूखे जमादार ने
मिलेंगे उसे आठ आने पुरस्कार में
आवारा कुतिया की चीत्कार भी क्या कोई दुःख की बात है?
मानव-शिशुओं को जहाँ नहीं मिलता है आश्रय
वहाँ क्यों जन्म दिया उसने आठ महाप्राणों को
दो को खाकर अपने पेट की ज्वाला शांत की सियारों ने
वैसे ही यह छहों भी भूल जाएँगे स्वर्ग में अपने क्लेश।
यह सुनकर माँ चिल्ला उठी...
उम्र बढ़ जाने से लाज-शर्म भी चली जाती है
और उसके साथ विवेक भी नष्ट हो जाता है
एक निरीह कुतिया पर अपने पौरुष की डींग हाँकते हो
नौ-दस बच्चों के पिता होकर भी
तुम्हें ज़रा भी लाज नहीं आती, हे धर्मोपदेशक?
तुम्हारे अपने शिशुओं की माँ के कंठ में लगने से फँदा
तुम्हें मालूम होता छ:-छः मूक शिशुओं की बरबादी
क्या ऐसे भी होते हैं पाषाण-हृदय,
जिन्हें अपने स्वार्थ की सिद्धि ही अभीष्ट है
और सब है हेय, तुच्छ और उपेक्षित?
यह सुनकर मेरा पाषाण हृदय हो गया जड़ स्तब्ध
बह निकली आग्नेय नेत्रों से परिताप अश्रु-धारा
लगा, जैसे किसी ने कशाघात किया हो नितम्ब, जानु, जंघा में
और मैं अपराधी की भाँति बैठा हूँ न्यायालय में
निर्णय की प्रतीक्षा में
वह निरी कुतिया हो, अथवा विश्व-जननी
कंकाल अस्थि की गणना कल्पनातीत है
इसी समय कनिष्ठ पुत्र ने हाँफते हुए कहा
उस मुहल्ले से भी कुछ कुत्ते ले गए हैं भरकर
लो सुनो गाड़ी के पहियों का स्वर
हो सकता है तुम्हारे मना करने पर
वे छोड़ दें भय से
अन्यथा उनका अंत सन्निकट है
यह निश्चित समझो,
जाओ, पिताजी, कुछ पैसे देकर उनकी रक्षा करो,
क्या, इतने निष्ठुर हो तुम, इतना भी नहीं समझते हो?
भेद नहीं है मानव-शिशु या श्वान-शिशु में
निखिल सृष्टि ही चूर करती है श्वान कल्पना को
परम अपराधी के समान मैं बैठ गया हूँ मूक हतप्रभ
कहा मैंने...“जो चला गया वह चला गया
इन छ: अनाथ बच्चों को मिला लो अपने में
आज से इस कुटुंब में तुम दस नहीं
सोलह भाई-बहन हो।”
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 87)
- रचनाकार : सबुज
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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