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अटूट खेल का मोह

atut khel ka moh

प्रवासिनी महाकुड़

प्रवासिनी महाकुड़

अटूट खेल का मोह

प्रवासिनी महाकुड़

और अधिकप्रवासिनी महाकुड़

    खोजते रहना ही है जीवन

    और पाना, मर जाने की तरह

    कौन किसको ढूँढ़ता है यहाँ?

    ज़िंदगी ज़िंदगी को?

    मौत मौत को?

    आँसू और आग का खेल प्रेम प्रेम को?

    तुम मुझे या मैं तुमको?

    क्या खो जाता है भला!

    फूलों से सौरभ, सीपियों से मोती, माटी से रस

    बादल से पानी, सूरज से रौशनी, चाँद से चाँदनी

    ज़िंदगी से दुःख, होठों से प्यास, आँखों से आँसू?

    बोलो! क्या खो जाता है जिसे खोजा जाता है

    सालों महीनों तक!

    हर अच्छे मौसम में, हर बुरे मौसम

    है तो अभी फूलों में ख़ूशबू, सीपियों में मुक्ता

    मिट्टी में रस, बादल में पानी

    चाँद में चाँदनी, ज़िंदगी में दुःख

    होठ में प्यास, आँखों में आँसू

    सब कुछ मौजूद है, सब कुछ है ज़िंदगी में

    खोजना एक अटूट खेल

    जो ख़त्म नहीं होता कभी भी

    इस जनम में

    अगले जनम में

    जीत जाने पर रुक मत जाओ

    हार जाने पर सरकंडे की तरह टूट जाओ

    ढीला छोड़ो लगाम को।

    एक प्यास बुझ जाने पर और एक प्यास से

    तड़प उठो। रेगिस्तान के झरने का पता करो।

    देखोगे सिद्धार्थ! ज़िंदगी अच्छी लगती है या नहीं

    यह भूलना—

    खोजते रहना ही है जीवन

    और पाना मौत के समान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 47)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ दीप्ति प्रकाश एवं प्रभात त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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