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आतंक और एक प्रेम कविता

atank aur ek prem kavita

महाराज कृष्ण संतोषी

महाराज कृष्ण संतोषी

आतंक और एक प्रेम कविता

महाराज कृष्ण संतोषी

और अधिकमहाराज कृष्ण संतोषी

    अभी जैसे कल की बात हो

    जब मुझे उसने चूमा था इस पार्क में

    उसके चुंबन का सुख

    भीतर ही भीतर छिपाते हुए

    मैंने उससे कहा था

    और मत करना साहस

    अभी जैसे कल की बात हो

    जब मौसम था बसंत का

    और पेड़ फूलों से भरे हुए थे

    इन्हीं फूलों की महक में

    हम बातें करते रहे

    भूलते हुए समय को

    और लौटते हुए घर

    जब उसने मुझे भर लिया बाहों में

    मैंने उसे चेताया

    कहा

    यहाँ हवा जासूस हे

    कुछ भी छिपा नहीं रहता

    अभी जैसे कल की बात हो

    जब उसने

    पुल और नदी को गवाह बनाकर

    मुझे अपने प्यार का विश्वास दिलाया था

    उस समय बहुत डर गई थी मैं

    कहीं कोई दुश्मन चेहरा

    हमें देख तो नहीं रहा था

    पर अब जैसे थम गया हो समय

    मारा गया मेरा प्यार

    बीच सड़क पर

    अपनी असीम संभावनाओं के साथ

    क्या इसलिए वह मारा तो नहीं गया

    कि वह प्यार के सिवा

    कुछ जानता ही था

    मेरे वतन की हवाओ!

    सचमुच यहाँ ख़तरनाक है

    प्यार करना

    फिर भी कहना

    मेरे हमउम्रों से

    जोख़िम उठाकर भी प्यार करना

    जैसे हमने किया

    समय के ख़िलाफ़

    समय को भूलते हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : महाराज कृष्ण संतोषी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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