असंख्य ब्रह्मांड और मेरी ट्रेन
asankhya brahmanD aur meri train
विज्ञान कहता है—
असंख्य ब्रह्मांड हैं
घटते हैं जिनमें असंख्य यथार्थ
एक साथ
यानी जिस ट्रेन पर मैं सवार हूँ
वह भी कई दिशाओं में बढ़ रही है—
अलग-अलग रंगों की ट्रेन
किसी के मैं भीतर बैठा हूँ
और किसी के नीचे कुचल गया हूँ—
घर से निकलते ही।
ऐसा ब्रह्मांड ज़रूर है
जहाँ ट्रेन हमेशा समय पर पहुँचती है
लेकिन ऐसा ब्रह्मांड भी है
जिसमें अपने आप मुड़ जाती हैं पटरियाँ
और मैं जहाँ से चला था
वहीं पहुँच जाता हूँ।
वह ब्रह्मांड मैं देखना चाहूँगा
जहाँ अचार का डिब्बा खुलते ही
धूप खिलती है
बशर्ते हम दूर रहें उस ब्रह्मांड से
जहाँ मूँगफली फोड़ते ही
रुक जाती है ट्रेन।
जिस ब्रह्मांड में ट्रेन
उड़ती चिड़ियों का झुंड है
वहाँ मैं डूबते सूरज का सिग्नल जलाकर
करता हूँ क्षितिज पर इंतज़ार।
जिस ब्रह्मांड में ट्रेन है विस्तृत एक नदी
वहाँ मैं गिरता हूँ झरने के साथ,
टनल से गुज़रने की तरह।
और अगर सचमुच ब्रह्मांड असंख्य हैं
तो सोचकर अजीब लगता है
कि किसी में ट्रेन तारों की शृंखला है
किसी में मेरी नोटबुक पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ
और किसी ब्रह्मांड में ट्रेन रस्सी है
अघोरी की खोपड़ी में
साँप बनने को तैयार।
मेरे ब्रह्मांड में फ़िलहाल ट्रेन रुकी हुई है
जो गर्म चाय का कप भरवाकर
हाथ में लेते ही
झटककर चल देती है।
- रचनाकार : सौरभ राय
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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