विष्णु राभा, अब कितनी रात है
wishnu rabha, ab kitni raat hai
बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य
Birendrakumar Bhattacharya
विष्णु राभा, अब कितनी रात है
wishnu rabha, ab kitni raat hai
Birendrakumar Bhattacharya
बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य
और अधिकबीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य
1
विष्णु राभा, अब कितनी रात है?
तुम जाग रहे हो, हम भी जाग रहे हैं,
और जाग रही है प्रीति।
‘बिहु’ भूमि से ‘सिफु’ बाँसुरी का करुण सुर
बड़ो-षोड़शी के नृत्य का ताल भंग होता है
जनता की आँखें आँसुओं से पूर्ण हैं।
रात के दूसरे पहर को राजपथ से
आक्षेप कर कौन जाता है
विष्णु राभा नहीं है।
निर्जन ‘सैल में' तुम जाग रहे हो
जग रही है क्रूर ईंट की दीवार,
बंदी तुम्हारे कंठ के सुर
नृत्य की लय लास्य
तुम जाग रहे हो, और जाग रही है
जागृत जनता, निद्राविहीन रात।
2
विष्णु राभा, अब कितनी रात है
'बिहु' भूमि में हम इंतज़ार कर रहे हैं,
और साथ में इंतज़ार कर रही है
यह मनोरमा सखी।
सारे राज-पथ में नव-उन्मेष-ध्वनि है
हज़ारों का अविराम कोलाहल है।
सबके मुँह प्रश्न मुखर हैं—आज बिहु की रात में
कारागार कब खुलेगा?
बंदी सृष्टि को कब प्राण मिलेगा?
आज गीत-ध्वनि सुर प्राण-हीन है,
बिहुभूमि प्राण-हीन है।
बंदी शिल्पी की वेदना में जाग उठता है—
रँगे जीवन का उन्माद
सच्ची आवेश की लहरें!
रात के दूसरे पहर में सारे श्मशान में कौन चिल्लाता है—
‘कल्लोल बंधु, जीवन का कल्लोल है!’
3
दास कैपिटल के और ग्यारह पन्ने बाक़ी हैं
रात के दूसरे पहर को कौन त्रिनयन पढ़ता है
आलोक आलोक उदयाचल में रवि है
नव-जीवन के प्रवेश द्वार में इतिहास साक्ष्य देगा
विष्णु राभा फिर तूलिका लो,
ईंट की दीवार में खींच जाओ ऐसे चित्र
जिस चित्र में उतरेगा हज़ारों का उल्लास
अख्यात जनों के आशा-आवेग का रंग
ईंट की दीवार में जल रहा है।
दास कैपिटल का स्वप्न।
शेष रात को राजपथ में कौन बुलंद आवाज़ से चिल्लाता है
अख्यात जन के रंग से
हिंगुल हरताल लाल हो गया।
4
तुम जाग रहे हो और जाग रही है
तुम्हारी तूलिका जीवन की चिरसाथिन!
यहाँ तुम हो वह एक छोटा-सा कारागार है
सिर्फ़ एक ही ईंट की दीवार खड़ी है।
यहाँ हम हैं यह एक बड़ी बंदीशाला है,
हम यहाँ सैकड़ों नागपाश से बंदी हैं
तुम्हारे और हमारे बिहु त्यौहार में देर नहीं है।
हिया-हलदी से शरीर मन को धोकर
हमारा मिलाप होगा
नव-जीवन के प्रभात में
विष्णु राभा, यह देखो गोल सूरज का
लाल मुँह खिल उठा सच्चे आवेग में
मुक्ति का कंपन है।
शेष रात को यह अख्यात जन का जुलूस है
समस्वर से पुकारता है आलोक-आलोक
जीवन की जय-ध्वनि हे।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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